मुडियाए है ! छापनेपालो का तगादा सुनके लजा, क्रोध और चिन्ता साए लेती है। अपनी गृहस्थी के खर्च में हर्ष सह २ के कुछ देते जाते हैं, और झूठे वादे तथा मनको मार के खुशामद से टाले जाते हैं । भविष्यत् का ज्ञान परमेश्वर को है, क्या जाने, उसकी इस लीला में फोन गुप्त भेद है । पर हमारा विचार यह है कि जैसे तैसे यह पर्प पूरा हो तो 'प्राह्मण' को ब्राह्मलोक भेजें, और यथासाध्य नाविहदोंसे रुपया वसूल करें, फिर वर्ष छ महीने में धीरे २ ऋण हत्या बुडाथे। खुशामद होती नहीं, मांगना माता नहीं, फिर यह भाशा कैसे करें कि कोई हमारा बोझ हलका करेगा। हंसी-खुशी हमारा मूल्य ही दे दें तो उन्होंने मानो सय कुछ दे दिया। यह सम्पादकों की महाकथा का एक अध्याय सोपसे इसलिए सुनाया है कि हम लोगों की दशा सयको विदित हो जाय । हम गगा में पैठ के कह सकते हैं कि यह झूठ नहीं है।
जयकि हमारे छोटे से पत्र की केवल चार वर्ष में या गति है तो हमारे मान्यवर "हिन्दी-प्रदीप"काल,हम सम सते हैं, हमसे भी बुरा होगा। "ब्राह्मण से दूना उसका आकार है, चौगुनी उसकी आयु है, उसके सम्पादक श्रीबालकृष्ण भट्ट हैं, यह हमसे भी गई चीती दशा में ठहरे, कुटुम्ब बडा, स्वच यडा, सहायक सगा धाप भी नहीं, स्पष्टवक्तापन के मारे जधानी दोस्त भी फोई नहीं। ऐसी हालत में सरकारने १०)" टैक्स के ले लिए। हम क्यों न कहें-"मरेको मार शाह मदार । यह विचारे फौन धंधा करते हैं, जो उनपर टिकस ! दस रुपये में क्या सर्कार का खजाना भर गया ! कर्मचारियों की कौन घडी नेकनामी हो गई। कौन तनखाह बढ़ गई, कौन पदवी, (लिताय), मिल गई। हाय क्या ज़माना है कि