पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/९३

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वाजिदअलीशाह ।

हाय ! आज एमी नहीं रो रहे हैं, हमारी लेखनी का भी एदय विदीर्ण हो रहा है ! मसी मत समझो, मारे दु स्त्र के उन्माद दोरहा है, इससे रक काला पड़ गया है, और आसुओं के साथ नेत्र-द्वारा यहा जाता है। हमारा कानपुर यवनों का मगर नाही सही, पर लखनऊ यहां से दूर नहीं है, परच यहां से सहस्रो सम्बन्ध रखता है। फिर क्यों न लपनऊ के साथ इसे भी शोक हो । सम्पादक और उसके मित्र श्री यायू राधे- लाल प्रादिक फई लोग प्रत्यक्ष अभ्र-वर्षा कर चुके हैं। यह बात किसी के देखाने को नहीं, बरंच हृदय के सच्चे सताप से थी। हाय शाह वाजिदमलो ! हा सुलताने आलम ! हा अस्त्र. तर ! हाय सूर्य अवध के कन्हैया तुम हमारा शासन न करते थे, तुम हमारी जाति के न थे तो भी, हमारा यावशाह कलकत्ते में पैठा है, यह स्मरण हमारे लिए सन्तोषजनक था। तुम्हारा अत करण हमसे ममता रखता था, इसमें कोई सन्देह नहीं।

पर हाय ! दुष्ट देव से इतना भी न देखा गया, मूर्ख, सुशामदी और अपने तुर्गणों से भी पराए सद्गुण तक को तुच्छ समझनेपाने चाहे जो कुछ मस्र मारें, पर हम मली मांति जानते है कि तुम्हारे दोष भी मनुष्य-जाति की अपूर्ण शकि से अधिक कुछ न थे। तुमने अपनी प्रभुता के समय हिन्दू मुसलमान दोनों को अपनी प्यारी प्रजा समझा है। के यह तुम्हारा एक गुण ऐसा है कि यदि तुम सहस्र दोप भी होते तो भस्म कर देता । जो मूर्ख और दुष्ट लोग अपने मतवालेपन से दूसरों के पूज्य पुरुषों की निन्दा में सचमुच