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आठवां परिचछेद
 

जी से मेरी शिकायत की होती, तो शायद मुझे इतना दुःख न होता । मैं तो उस आघात के लिए तैयार बैठा था । संसार में क्या कहीं मेरा ठिकाना नहीं है ? क्या मैं मजदूरी भी नहीं कर सकता? लेकिन बुरे वक्त में इन्होंने चोट की । हिंसक पशु भी आदमी को गाफिल पाकर ही चोट करते हैं; इसीलिए मेरी इतनी आवभगत होती थी, खाना खाने के लिए उठने में जरा भी देर हो जाती थी, तो वुलावे पर बुलावे आते थे, जल-पान के लिए प्रातःकाल ताजा हलुवा बनाया जाता था, बारवार पूछा जाता था-रुपयों की जरूरत तो नहीं है ; इसीलिए यह १६०) की घड़ी मँगवाई गई

मगर क्या इन्हें कोई दूसरी शिकायत न सूझी, जो मुझे आवारा कहा ? आखिर उन्होंने मेरी क्या आवारगी देखी ? वह कह सकती थीं कि इसका मन पढ़ने-लिखने में नहीं लगता, एक न एक चीज़ के लिए नित्य रुपये माँगता रहता है । यही एक बात उन्हें क्यों सूझी ? शायद इसीलिए कि यही सब से कठोर आघात है, जो वह मुझ पर कर सकती हैं। पहली ही बार इन्होंने मुझ पर अभिबाण चला दिया, जिससे कहीं शरण नहीं। इसीलिए न कि यह पिता की नजरों से गिर जाय । मुझे बोर्डिङ्ग हाउस में रखने का तो एक बहाना था । उद्देश्य यही था कि इसे दूध की मक्खी की तरह निकाल दिया जाय । दो-चार महीने के बाद खर्च-चर्च देना वन्द कर दिया जाय, फिर चाहे मरे या जिए। अगर मैं जानता कि यह प्रेरणा इनकी ओर से हुई है, तो कहीं जगह न रहने पर