पृष्ठ:निर्मला.djvu/११

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निर्मला
 


एक क्षण में नाव खुल जाती है। वह चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगती है। नदी के निर्जन तट पर रात भर कैसे रहेगी, यह सोच, वह नदी में कूद कर उस नाव को पकड़ना चाहती है कि इतने में कहीं से आवाज़ आती है--ठहरो-ठहरो, नदी गहरी है, डूब जाओगी। वह नाव तुम्हारे लिए नहीं है, मैं आता हूँ; मेरी नाव पर बैठ जाओ, मैं उस पार पहुँचा दूँगा। वह भयभीत होकर इधर-उधर देखती है कि यह आवाज़ कहाँ से आई। थोड़ी देर के बाद एक छोटी-सी डोंगी आती दिखाई देती है। उसमें न पाल है, न पतवार; और न मस्तूल। पेंदा फटा हुआ है, तख्ते टूटे हुए, नाव में पानी भरा हुआ है; और एक आदमी उसमें से पानी उलीच रहा है। वह उससे कहती है, यह तो टूटी हुई है, यह कैसे पार लगेगी? मल्लाह कहता है-- तुम्हारे लिए यही भेजी गई है, आकर बैठ जाओ। वह एक क्षण सोचती है--इसमें बैठूँ या न बैठें। अन्त में वह निश्चय करती है, बैठ जाऊँ। यहाँ अकेली पड़ी रहने से नाव में बैठ जाना फिर भी अच्छा है। किसी भयङ्कर जन्तु के पेट में जाने से तो यही अच्छा है कि नदी में डूब जाऊँ। कौन जाने, नाव पार पहुँच ही जाय; यह सोच कर वह प्राणों को मुट्ठी में लिए हुए नाव पर बैठ जाती है। कुछ देर तक नाव डगमगाती हुई चलती है; लेकिन प्रति क्षण उसमें पानी भरता जाता है। वह भी मल्लाह के साथ दोनों हाथों से पानी उलीचने लगती है, यहाँ तक कि उसके हाथ रह जाते हैं; पर पानी बढ़ता ही चला जाता है।