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निर्मला
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उससे अवश्य मिल लिया करते थे। उनके आने का समय हो गया था। आ ही रहे होंगे,यह सोच कर निर्मला द्वार पर खड़ी हो गई और उनका इन्तजार करने लगी;लेकिन यह क्या! वह तो बाहर चले जा रहे हैं। गाड़ी जुत कर आ गई,यह हुक्म वह यहीं से दिया करते थे। तो क्या आज वह न आएँगे, बाहर ही बाहर चले जाएँगे। नहीं ऐसा नहीं होने पावेगा। उसने भुङ्गी से कहा-जाकर बाबू जी को बुला ला। कहना एक जरूरी काम है;सुन लीजिए।

मुन्शी जी जाने को तैयार ही थे। यह सन्देशा पाकर अन्दर आए; पर कमरे में न आकर दूर ही से पूछा-क्या बात है,भाई? जल्दी कह दो, मुझे एक जरूरी काम से जाना है। अभी थोड़ी देर हुई हेडमास्टर साहब का एक पत्र आया है कि मन्साराम को ज्वर आ गया है, बेहतर हो कि आप घर ही पर उसका इलाज करें। इसलिए उधर ही से होता हुआ कचहरी जाऊँगा। तुम्हें कोई खास बात तो नहीं कहनी है।

निर्मला पर मानो वज्र गिर पड़ा। आँसुओं के आवेग और कण्ठ-स्वर में घोर संग्राम होने लगा। दोनों ही पहले निकलने पर तुले हुए थे। दो में से कोई एक कदम भी पीछे हटना नहीं चाहता था । कराठ-स्वर की दुर्बलता और आँसुओं की सबलता देख कर यह निश्चय करना कठिन नहीं था कि एक क्षण यही संग्राम होता रहा, तो मैदान किसके हाथ रहेगा? आखिर दोनों साथ-साथ निकले लेकिन बाहर आते ही बलवान ने निर्बल को दबा लिया।