दसवाँ परिच्छेद
मन्साराम दो दिन तक गहरी चिन्ता में डूबा रहा। बार-बार अपनी माता की याद आती; न खाना अच्छा लगता, न पढ़ने ही में जी लगता। उसकी काया-पलट सी हो गई। दो दिन गुज़र गए और छात्रालय में रहते हुए भी उसने वह काम न किया, जो स्कूल के मास्टरों ने घर से कर लाने को दिया था। परिणाम-स्वरूप उसे बैञ्च पर खड़ा रहना पड़ा। जो बात कभी न हुई थी, वह आज हो गई! यह असह्य अपमान भी उसे सहना पड़ा!
तीसरे दिन वह इन्हीं चिन्ताओं में मग्न हुआ अपने मन को समझा रहा था—क्या संसार में अकेले मेरी ही माता मरी है। विमाताएँ तो सभी इसी स्वभाव की होती हैं। मेरे साथ कोई नई बात नहीं हो रही है। अब मुझे पुरुषों की भाँति द्विगुण परिश्रम से अपना काम करना चाहिए; जैसे माता-पिता राज़ी रहें, वैसे उन्हें राज़ी रखना चाहिए। इस साल अगर छात्रवृत्ति मिल गई, तो मुझे घर से कुछ लेने की ज़रूरत ही न रहेगी। कितने ही लड़के अपने ही बल पर बड़ी-बड़ी उपाधियाँ प्राप्त कर लेते हैं।