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पृष्ठ:निर्मला.djvu/१८३

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निर्मला
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माता-हाँ, मगर अब तो शास्त्री जी कहते थे कि दहेज के नाम से चिढ़ते हैं। सुना है, यहाँ विवाह न करने पर पछताते भी थे। रुपए के लिए बात छोड़ी थी; और रुपए खूब पाए; पर स्त्री पसन्द नहीं!

निर्मला के मन में उस पुरुष को देखने की बड़ी प्रबल उत्कण्ठा हुई, जो उसकी अवहेलना करके अब उसकी बहिन का उद्धार करना चाहता है। प्रायश्चित्त सही; लेकिन कितने ऐसे प्राणी हैं, जो इस तरह प्रायश्चित्त करने को तैयार हैं। उनसे बातें करने के लिए नम्र शब्दों में उनका तिरस्कार करने के लिए, अपनी अनुपम छबि दिखा कर उन्हें और भी जलाने के लिए निर्मला का हृदय अधीर हो उठा। रात को दोनों बहिनें एक ही कमरे में सोई। मुहल्ले में किन-किन लड़कियों का विवाह हो गया, कौन-कौन सी लड़कोरी हुईं; किस-किस को विवाह धूम-धाम से हुआ, किस-किस के पति कन्या की इच्छानुकूल मिले, कौन कितने और कैसे गहने चढ़ावे में लाया- इन्हीं विषयों पर दोनों में बड़ी देर तक बातें होती रहीं। कृष्णा बार-बार चाहती थी कि बहिन के घर का कुछ हाल पूछ; मगर निर्मला उसे कुछ पूछने का अवसर न देती थी। वह जानती थी कि यह जो बातें पूछेगी, उसके बताने में मुझे सङ्कोच होगा। आखिर एक बार कृष्णा पूछ ही बैठी-जीजा जी भी आएँगे न?

निर्मला-आने को कहा तो है।

कृष्णा-अब तो तुमसे प्रसन्न रहते हैं न, या अब भी वही हाल है। मैं तो सुना करती थी, दुहाज पति अपनी स्त्री को प्राणों