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पृष्ठ:निर्मला.djvu/१८४

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पन्द्रहवाँ परिच्छेद
 

से भी प्रिय समझता है, यहाँ विलकुल उलटी वात देखी। आखिर किस वात पर बिगड़ते रहते हैं?

निर्मला-अव मैं किसी के मन की बात क्या जानूं?

कृष्णा-मैं तो समझती हूँ, तुम्हारी रुखाई से वह चिढ़ते होंगे। तुम तो यहीं से जली हुई गई थीं। वहाँ भी उन्हें कुछ कहा होगा?

निर्मला--यह वात नहीं है कृष्णा; मैं सौगन्द खाकर कहती हूँ, जो मेरे मन में उनकी ओर से जरा भी मैल हो। मुझसे जहाँ तक हो सकता है,उनकी सेवा करती हूँ। अगर उनकी जगह कोई देवता भी होता, तो भी मैं इससे ज्यादा और कुछ न कर सकती। उन्हें भी मुझसे प्रेम है,वरावर मेरा मुँह देखते रहते हैं;लेकिन जो बात उनके और मेरे काबू से बाहर है, उसके लिए वह क्या कर सकते हैं;और मैं क्या कर सकती हूँ? न वह जवान हो सकते हैं, न मैं बुढ़िया हो सकती हूँ। जवान बनने के लिए वह न जाने कितने रस और भस्म खाते रहते हैं, मैं बुढ़िया बनने के लिए दूध-घी सव छोड़े बैठी हूँ। सोचती हूँ, मेरे दुवलेपन ही से अवस्था का भेद कुछ कम हो जाय; लेकिन न उन्हें पौष्टिक पदार्थों से कोई लाभ होता है; न मुझे उपवासों से! जब से मन्साराम का देहान्त हो गया है, तबसे उनकी दशा और भी खराब हो गई है।

कृष्णा-मन्साराम को तो तुम भी बहुत प्यार किया करती थीं।

निर्मला-वह लड़का ही ऐसा था कि जो देखता था, प्यार करता था। ऐसी बड़ी-बड़ी डोरेदार ऑखें मैं ने किसी की नहीं देखी।