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पृष्ठ:निर्मला.djvu/१८५

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निर्मला
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कमल की भाँति मुख हरदम खिला रहता था। ऐसा साहसी कि अगर अवसर आ पड़ता, तो आग में फाँद जाता। कृष्णा, मैं तुझसे सच कहती हूँ, जब वह मेरे पास आकर बैठ जाता था, तो मैं अपने को भूल जाती थी। जी चाहता था, यह हरदम सामने बैठा रहे और मैं देखा करूँ! मेरे मन में पाप का लेश भी न था।अगर एक क्षण के लिए भी मैं ने उसकी ओर किसी और भाव से देखा हो, तो मेरी आँखें फूट जाय; पर न जाने क्यों उसे अपने पास देख कर मेरा हृदय फूला न समाता था। इसीलिए मैंने पढ़ने का स्वाँग रचा, नहीं तो वह घर में आता ही न था। यह मैं जानती हूँ कि अगर उसके मन में पाप होता, तो मैं उसके लिए सबकुछ कर सकती थी।

कृष्ण-अरे बहिन, चुप रहो; कैसी बातें मुँह से निकालती हो।

निर्मला-हाँ, यह बात सुनने में बुरी मालूम होती है और है भी बुरी; लेकिन मनुष्य की प्रकृति को तो कोई बदल नहीं सकता।' तूही बता-एक पचास वर्ष के मर्द से तेरा विवाह हो जाय, तो तू क्या करेगी?

कृष्णा-बहिन, मैं तो जहर खाकर सो रहूँ। मुझसे तो उसका मुंह भी न देखते बने!

निर्मला-तो बस यही समझ ले। उस लड़के ने कभी मेरी ओर आँख उठा कर नहीं देखा; लेकिन बुड्ढे शक्की तो होते ही हैं-तुम्हारे जीजा उस लड़के के दुश्मन हो गए; और आखिर उसकी जान लेकर ही छोड़ी। जिस दिन उसे मालूम हो गया कि पिता जी के मन में मेरी ओर से सन्देह है,उसी दिन से उसे ज्वर