सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निर्मला.djvu/१८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८३
पन्द्रहवाँ परिच्छेद
 

चढ़ा, जो जान लेकर ही उतरा। हाय! उस अन्तिम समय का दृश्य आँखों से नहीं उतरता! मैं अस्पताल गई थी, वह ज्वर में बेहोश पड़ा था-उठने की शक्ति न थी, लेकिन ज्योंही मेरी आवाज सुनी, चौंक कर उठ बैठा और माता-माता कह कर मेरे पैरों पर गिर पड़ा! (रो कर ) कृष्णा,उस समय ऐसा जी चाहता था कि अपने प्राण निकाल कर उसे दे दूं। मेरे पैरों पर ही वह मूर्छित हो गया; और फिर आँखें न खोली। डॉक्टर ने उसकी देह में ताजा खून डालने का प्रस्ताव किया था, यही सुन कर मैं दौड़ी गई थी; लेकिन जब तक डॉक्टर लोग वह क्रिया आरम्भ करें, उसके प्राण निकल गए!

कृष्णा-ताजा रक्त पड़ जाने से उसकी जान बच जाती ?

निर्मला-कौन जानता है ! लेकिन मैं तो अपने रुधिर की अन्तिम बूंद देने की तैयार थी। उस दशा में भी उसका मुख-मण्डल दीपक की भाँति चमकता था। अगर वह मुझे देखते ही दौड़ कर मेरे पैरों पर न गिर पड़ता-पहले कुछ रक्त देह में पहुँच जाता, तो शायद बच जाता।

कृष्णा-तो तुमने उन्हें उसी वक्त लेटा क्यों न दिया?

निर्मला-अरे पगली, तू अभी तक बात नहीं समझी। वह मेरे पैरों पर गिर कर और माता-पुत्र का सम्बन्ध दिखा कर, अपने बाप के दिल से वह सन्देह निकाल देना चाहता था। केवल इसीलिए वह उठा था। मेरा क्लेश मिटाने के लिए उसने प्राण दिए और उसकी वह इच्छा पूरी हो गई। तुम्हारे जीजा जी उसी