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निर्मला
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चिन्ता भाग जाती थी। मुन्शी जी ने उसे गोद में लेना चाहा, तो रोने लगी, दौड़ कर माँ से लिपट गई; मानो पिता को पहचानती ही नहीं। मुन्शी जी ने मिठाइयों से उसे परचाना चाहा! घर में कोई नौकर तो था नहीं, जाकर सियाराम से दो आने की मिठाइयाॅ लाने को कहा। जियाराम भी बैठा हुआ था। बोल उठा -- हम लोगों के लिए तो कभी मिठाइयाँ नहीं आती।

मुन्शी जी ने झुँझलाकर कहा -- तुम लोग बच्चे नहीं हो।

जियाराम -- और क्या बूढ़े हैं। मिठाइयाँ मँगवा कर रख दीजिए, तो मालूम हो कि बच्चे हैं या बूढ़े। निकालिए चार आने और। आशा की बदौलत हमारे नसीब भी जागें।

मुन्शी जी -- मेरे पास इस वक्त़ पैसे नहीं हैं। जाओ सिया, जल्द आना।

जिया ०-- सिया नहीं जायगा। किसी का गुलाम नहीं है। आशा अपने बाप की बेटी है, तो वह भी अपने बाप का बेटा है।

मुन्शी जी -- क्या फ़ुज़ूल की बातें करते हो। नन्हीं सी बच्ची की बराबरी करते तुम्हें शर्म नहीं आती। जाओ सियाराम, ये पैसे लो।

जिया ०-- मत जाना सिया! तुम किसी के नौकर नहीं हो। सिया बड़ी दुविधा में पड़ गया। किसका कहना माने? अन्त में उसने जियाराम का कहना मानने का निश्चय किया। बाप ज्य़ादा से ज़्यादा घुड़क देंगे, जिया तो मारेगा, फिर वह किसके पास फ़रियाद लेकर जायगा। बोला -- मैं न जाऊँगा।