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निर्मला
२०
 


था। उदयभानु ने उस मुक़दमे में सरकार की ओर से पैरवी की थी; और इस बदमाश को तीन साल की सजा दिलाई थी। तभी से वह इनके खून का प्यासा हो रहा था। कल ही वह छूट कर आया था। आज दैवात् बाबू साहब अकेले रात को दिखाई दिए, तो उसने सोचा यह इनसे दाँव चुकाने का अच्छा मौका है। ऐसा मौका शायद ही फिर कभी मिले। तुरन्त पीछे हो लिया; और वार करने के घात ही में था कि बाबू साहब ने जेबी लालटेन जलाई। बदमाश ज़रा ठिठक कर बोला--क्यों बाबू जी, पहचानते हो न? मैं हूँ मतई।

बाबू साहब ने डपट कर कहा--तुम मेरे पीछे-पीछे क्यों आ रहे हो?

मतई--क्यों, किसी को रास्ता चलने की मनाही है। यह गली तुम्हारे बाप की है?

बाबू साहब जवानी में कुश्ती लड़े थे, अब भी हृष्ट-पुष्ट आदमी थे। दिल के भी कच्चे न थे। छड़ी सँभाल कर बोले--अभी शायद मन नहीं भरा। अब की सात साल को जाओगे।

मतई--मैं सात साल को जाऊँ या चौदह साल को; पर तुम्हें जीता न छोड़ँगा। हाँ, अगर तुम मेरे पैरों पर गिर कर क़सम खाओ कि अब किसी की सजा न कराऊँगा, तो छोड़ दूँ। बोलो मञ्जूर है?

उदयभानु--तेरी शामत तो नहीं आई है?

मतई--शामत मेरी नहीं आई, तुम्हारी आई है। बोलो खाते! हो कसम--एक!

उदयभानु--तुम हटते हो कि मैं पुलीसमैन को बुलाऊँ?