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निर्मला
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भुङ्गी-बहू जी के सारे गहने उठ गए।

मुन्शी जी-रक्खे कहाँ थे?

निर्मला ने सिसकियाँ लेते हुए रात की सारी घटना बयान कर दी; पर जियाराम की सूरत के आदमी को अपने कमरे से निकलने की बात न कही। मुन्शी जी ने ठण्ढी साँस भर कर कहा-ईश्वर भी बड़ा अन्यायी है; जो मरे हैं, उन्हीं को मारता है। मालूम होता है, अदिन आ गए हैं। मगर चोर आया तो आया किधर से? कहीं सेंध नहीं पड़ी, और किसी तरफ से आने का रास्ता नहीं। मैंने तो कोई ऐसा पाप भी न किया था, जिसकी मुझे यह सजा मिल रही हो। बार-बार कहता रहा-गहने का सन्दूकचा ताक पर मत रक्खो; लेकिन कौन सुनता है।

निर्मला-मैं क्या जानती थी कि यह ग़ज़ब टूट पड़ेगा।

मुन्शीजी-इतना तो जानती थीं कि सब दिन बराबर नहीं जाते। आज बनवाने जाऊँ, तो दस हजार से कम न लगेंगे; और आजकल अपनी जो दशा है, वह तुमसे छिपी नहीं, खर्च भर को मुश्किल से मिलता है, गहने कहाँ से बनेंगे। जाता हूँ पुलिस में इत्तिला कर आता हूँ; पर मिलने की कोई उम्मीद न समझो।

निर्मला ने आपत्ति के भाव से कहा-जब जानते हैं कि पुलिस में इत्तिला करने से कुछ न होगा, तो क्यों जा रहे हैं?

मुन्शी जी-दिल नहीं मानता;और क्या? इतना बड़ा नुकसान उठा कर चुपचाप तो नहीं बैठा जाता।