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बीसवाँ परिच्छेद
 

निर्मला-मिलने वाले होते तो जाते ही क्यों? तक़दीर में न थे, तो कैसे रहते?

मुन्शी जी-तक़दीर में होंगे,तो मिल जाँयगे,नहीं तो गए तो हैं ही।

मुन्शी जी कमरे से निकले। निर्मला ने उनका हाथ पकड़ कर कहा-मैं कहती हूँ मत जाओ;कहीं ऐसा न हो लेने के देने पड़ जायँ।

मुन्शी जी ने हाथ छुड़ा कर कहा-तुम भी कैसी बच्चों की सी ज़िद कर रही हो। दस हजार का नुकसान ऐसा नहीं है,जिसे मैं यों ही उठा लूँँ। मैं रो नहीं रहा हूँ; पर मेरे हृदय पर जो कुछ बीत रही है, वह मैं ही जानता हूँ। यह चोट मेरे कलेजे पर लगी है! मुन्शी जी और कुछ न कह सके। गला फँस गया। वह तेजी से कमरे से निकल आए; और थाने पर जा पहुँचे। थानेदार उनका बहुत लिहाज़ करता था। उसे एक बार रिशवत के मुकद्दमे से बरी करा चुके थे। उनके साथ ही तफतीश करने आ पहुँचा। नाम था अलायार खाँ।

शाम हो गई थी। थानेदार ने मकान के अगवाड़े-पिछवाड़े घूम-घूम कर देखा। अन्दर जाकर निर्मला के कमरे को गौर से देखा। ऊपर की मुडेर की जाँच की। मुहल्ले के दो-चार आदमियों से चुपके-चुपके कुछ बातें कीं;और तब मुन्शी जी से बोला-जनाब, खुदा की कसम यह किसी बाहर के आदमी का काम नहीं। खुदा की कसम अगर कोई बाहर का आदमी निकले,तो