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पृष्ठ:निर्मला.djvu/२४५

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निर्मला
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सायबान में खड़े रहे। चलने लगे तो आँखें पोंछ रहे थे। इधर कई दिन से अकसर रोया करते थे।

मुन्शी जी ने ऐसी ठण्ढी साँस ली,मानो जीवन में अब कुछ नहीं रहा,और निर्मला से बोले-तुमने किया तो अपने समझ में भले ही के लिए; पर कोई शत्रु भी मुझ पर इससे कठोर आघात न कर सकता था। जियाराम सच कहता था कि विवाह करना ही मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी!

और किसी समय ऐसे कठोर शब्द सुन कर निर्मला तिलमिला जाती; पर इस समय वह स्वयं अपनी भूल पर पछता रही थी। अगर जियाराम की माता होती, तो क्या वह यह सङ्कोच करती? कदापि नहीं; बोली-जरा डॉक्टर साहब के यहाँ क्यों नहीं चले जाते?शायद वहाँ बैठे हों। कई लड़के रोज आते हैं,उनसे पूछिए, शायद कुछ पता लग जाय। फूंक-फूक कर चलने पर भी अपयश लग ही गया?

मुन्शी जी ने मानो खुली हुई खिड़की से कहा-हाँ,जाता हूँ; और क्या करूँगा?

मुन्शी जी बाहर आए तो देखा डॉक्टर सिन्हा खड़े हैं। चौंक कर पूछा-क्या आप देर से खड़े हैं?

डॉक्टर-जी नहीं, अभी आया हूँ। आप इस वक्त कहाँ जा रहे हैं? साढ़े बारह हो गए हैं।

मुन्शी जी-आप ही की तरफ आ रहा था। जियाराम अभी तक घूम कर नहीं आया। आपकी तरफ़ तो नहीं गया था?