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इक्कीसवाँ परिच्छेद
 

मगर उसे मिठाई के लिए पैसे नहीं मिलते; और वह वर्ताव कुछ सियाराम ही के साथ नहीं है,निर्मला स्वयं अपनी जरूरतों को टालती रहती है। धोती जब तक फट कर तार-तार न हो जाय, नई धोती नहीं आती, महीनों सिर का तेल नहीं मँगाया जाता, पान खाने का उसे शौक था, अब कई-कई दिन तक पानदान खाली पड़ा रहता है, यहाँ तक कि बच्ची के लिए दूध भी नहीं आता। नन्हें से शिशु का भविष्य विराट रूप धारण करके उसके -विचार क्षेत्र पर मँडराता रहता है।

मुन्शी जी ने अपने को सम्पूर्णतः निर्मला के हाथों में सौंप दिया है। उसके किसी काम में दखल नहीं देते। न जाने क्यों उससे कुछ दवे रहते हैं। वह अब बिला नागा कचहरी जाते हैं। इतनी मेहनत उन्होने जवानी में भी न की थी। ऑखें खराब हो गई हैं, डॉक्टर सिन्हा ने रात को लिखने-पढ़ने की मुमानियत कर दी है, पाचन-शक्ति पहले ही दुर्वल थी, अब और भी खराब हो गई है, दम की शिकायत भी पैदा हो चली है; पर वेचारे सबेरे से आधी रात तक काम करते रहते हैं। काम करने को जी चाहे या न चाहे, तबीयत अच्छी हो या न हो, काम करना ही पड़ता है। निर्मला को उन पर जरा भी दया नहीं आती। वही भविष्य की भीषण चिन्ता उसके आन्तरिक सद्भ़ावों का सर्वनाश कर रही है। किसी भिक्षुक की आवाज सुन कर वह झल्ला पड़ती है। वह एक कौड़ी भी खर्च नहीं करना चाहती।

एक दिन निर्मला ने सियाराम को घी लाने के लिए बाजार