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तेईसवाँ परिच्छेद
 

क्या मुन्शी जी को नींद आ सकती थी? तीन लड़कों में केवल एक बच रहा था। वह हाथ से निकल गया, तो फिर जीवन में अन्धकार के सिवा और क्या है? कोई नाम लेने वाला भी न रहेगा। हा! कैसे-कैसे रत्न हाथ से निकल गए। मुन्शी जी की आँखों से यदि इस समय अश्रुधारा वह रही थी, तो कोई आश्चर्य है? उस व्यापक पश्चात्ताप, उस सघन ग्लानि-तिमिर में आशा की एक हलकी-सी रेखा उन्हें संभाले हुए थी! जिस क्षण यह रेखा लुप हो जायगी, कौन कह सकता है-उन पर क्या वीतेगी? उनकी उस वेदना की कल्पना कौन कर सकता है?

कई बार मुन्शी जी की आँखें झपकी, लेकिन हर बारसियाराम की आहट के धोखे में चौंक पड़े!

सबेरा होते ही मुन्शी जी फिर सियाराम को खोजने निकले। किसी से पूछते शर्म आती थी। किस मुंह से पूछे? उन्हें किसी से सहानुभूति की आशा न थी। प्रकट न कह कर मन में सद यही कहेगे-जैसा किया, वैसा भोगो। सारे दिन वह स्कूल के मैदानों, बाजारों और वागीचों का चकर लगाते रहे। दो दिन निराहार रहने पर भी उन्हें इतनी शक्ति कैसे हुई,यह वही जानें।

रात के बारह वजे मुन्शी जी घर लौटे,दरवाजे पर लालटेन जल रही थी,निर्मला द्वार पर खड़ी थी। देखते ही बोली-कहा भी नहीं, न जाने कब चल दिए? कुछ पता चला?

मुन्शी जी ने आग्नेय नेत्रों से ताकते हुए कहा-हट जाओ सामने से, नहीं तो बुरा होगा। मैं आपे में नहीं हूँ। यह तुम्हारी