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चौवीसवाँ परिच्छेद
 

निर्मला -- क्या आपको नहीं मालूम है? देने वाले तो आप ही हैं।

मुन्शी -- तुम्हारे पास कुछ रुपए हैं या नहीं? अगर हों तो मुझे दे दो, न हों तो साफ़ जवाब दो।

निर्मला ने अब भी साफ़ जबाव न दिया। बोली -- होंगे तो घर ही में न होंगे। मैं ने कहीं और तो नहीं भेज दिए।

मुन्शी जी बाहर चले गए। वह जानते थे कि -- निर्मला के पास रुपए हैं। वास्तव में थे भी। निर्मला ने यह भी नहीं कहा कि नहीं हैं, या मैं न दूँगी; पर उसकी बातों से प्रकट हो गया कि वह देना नहीं चाहती।

नौ बजे रात को मुन्शी जी ने आकर रुक्मिणी से कहा -- बहिन, मैं ज़रा बाहर जा रहा हूॅ। मेरा विस्तरा भुङ्गी से बँधवा देना; और ट्रक में कुछ कपड़े रखवा कर बन्द कर देना।

रुक्मिणी भोजन बना रही थी; बोली -- बहू तो कमरे में है, कह क्यों नहीं देते? कहाँ जाने का इरादा है?

मुन्शी जी -- मैं तुमसे कहता हूँ; बहू से कहना होता,तो तुमसे क्यों कहता? आज तुम क्यों खाना पका रही हो?

रुक्मिणी -- कौन पकावे? बहू के सिर में दर्द हो रहा है। आखिर इस वक्त़ कहाँ जा रहे हो? सबेरे न चले जाना।

मुन्शी जी -- इसी तरह टालते-टालते तो आज तीन दिन हो गए। इधर-उधर घूम-धाम कर देखूँ, शायद कहीं सियाराम का

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