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निर्मला
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पता मिल जाय। कुछ लोग कहते हैं कि एक साधू के साथ बातें कर रहा था। शायद वही कहीं बहका ले गया हो।

रुक्मिणी -- तो लौटोगे कब तक?

मुन्शी जी -- कह नहीं सकता। हफ्त़ा भर लग जाय, महीना भर लग जाय; क्या ठिकाना है?

रुक्मिणी -- आज कौन दिन है? किसी पण्डित से पूछ लिया है, यात्रा है कि नहीं?

मुन्शी जी भोजन करने बैठे। निर्मला को इस वक्त़ उन पर बड़ी दया आई। उसका सारा क्रोध शान्त हो गया। ख़ुद तो न बोली, बच्ची को जगा कर चुमकारती हुई बोली -- देख,तेरे बाबू जी कहाँ जा रहे हैं? पूछ तो।

बच्ची ने द्वार से झाँक कर पूछा -- बाबू दी,तहाँ दाते हो?

मुन्शी जी -- बड़ी दूर जाता हूँ,बेटी। तुम्हारे बैया को खोजने जाता हूँ।

बच्ची ने वहीं से खड़े-खड़े कहा -- अम बी तलेंगे।

मुन्शी जी -- बड़ीं दूर जाते हैं बच्ची। तुम्हारे वास्ते चीज़ें लावेंगे! यहाँ क्यों नहीं आती?

बच्ची मुस्करा कर छिप गई; और एक क्षण में फिर किवाड़ से सिर निकाल कर बोली -- अम बी तलेंगे।

मुन्शी जी ने उसी स्वर में कहा -- तुम को नंई ले तलेंगे।

बच्ची -- अम को क्यों नईं ले तलोगे?

मुन्शी जी -- तुम तो हमारे पाछ आती नहीं हो।