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पृष्ठ:निर्मला.djvu/२८१

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र्निमला
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था कि मैं भी आदमी हूँ। उतनी देर के लिए वह चिन्ताओं से मुक्त हो जाती थी। जैसे शरावी को शराब के नशे में सारी चिन्ताएँ. भूल जाती हैं,उसी तरह निर्मला को सुधा के घर जाकर सारी बातें भूल जाती थीं। जिसने उसे उसके घर पर देखा हो, वह उसे यहाँ देख कर चकित रह जाता। वही कर्कशा,कटु-भाषिणी स्त्री यहाँ आकर हास्य,विनोद और माधुर्य की पुतली बन जाती थी। यौवन-काल की स्वाभाविक वृत्तियाँ अपने घर पर रास्ता बन्द पाकर यहाँ किलोलें करने लगती थीं। यहाँ आते वक्त वह माँग-चोटी,कपड़े-लत्ते से लैस होकर आती; और यथासाध्य अपनी विपत्ति-कथा को मन ही में रखती थी। यहाँ वह रोने के लिए नहीं,हँसने के लिए आती थी।

पर कदाचित् उसके भाग्य में यह सुख भी नहीं बदा था! निर्मला मामूली तौर से दोपहर को या तीसरे पहर को सुधा के घर जाया करती थी। एक दिन उसका जी इतना ऊबा कि सबेरे ही जा पहुँची। सुधा नदी-स्नान करने गई हुई थी। डॉक्टर साहब अस्पताल जाने के लिए कपड़े पहन रहे थे। महरी अपने काम-धन्धे में लगी हुई थी। निर्मला अपनी सहेली के कमरे में जाकर निश्चिन्त बैठ गई। उसने समझा--सुधा कोई काम कर रही होगी,अभी आती होगी। जब बैठे-बैठे दो-तीन मिनिट गुज़र गए,तो उसने अलमारी से तस्वीरों की एक किताब उतार ली,और केश खोले पलङ्ग पर लेट कर चित्र देखने लगी। इसी बीच में डॉक्टर साहब को किसी जरूरत से निर्मला के कमरे में आना पड़ा। शायद अपना ऐनक