सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निर्मला.djvu/२८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७६
पच्चीसवाँ परिच्छेद
 


ढूँढ़ते फिरते थे। बेधड़क अन्दर चले आए। निर्मला द्वार की ओर केश खोले लेटी हुई थी। डॉक्टर साहब को देखते ही चौंक कर उठ बैठी,और सिर ढाँकती हुई चारपाई से उतर कर खड़ी हो गई। डॉक्टर साहब ने लौटते हुए चिक के पास खड़े होकर कहा-क्षमा करना निर्मला। मुझे मालूम न था कि तुम यहाँ हो। मेरी ऐनक मेरे कमरे में नहीं मिल रही है। न जाने कहाँ उतार कर रख दी थी। मैं ने समझा शायद यहाँ हो।

निर्मला ने चारपाई के सिरहाने वाले आले पर निगाह डाली तो ऐनक की डिबिया दिखाई दी। उसने आगे बढ़ कर डिबिया उतार ली;और सिर झुकाए,देह समेटे,सङ्कोच से मुँह फेरे डॉक्टर साहब की ओर हाथ बढ़ाया। डॉक्टर साहब ने निर्मला को दो एक बार पहले भी देखा था; पर इस समय के से भाव कभी उनके मन में न आए थे। जिस ज्वाला को वह बरसों से हृदय में दवाए हुए थे, वह आज पवन का झोंका पाकर दहक उठी। उन्होंने ऐनक लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो हाथ कॉप रहा था। ऐनक उठा कर भी वह बाहर न गए। वहीं खोए हुए से खड़े रहे। निर्मला ने इस एकान्त से भयभीत होकर पूछा-सुधा कहीं गई हैं क्या?

डॉक्टर साहब ने सिर झुकाए हुए जवाब दिया-हाँ,जरा स्नान करने चली गई हैं।

फिर भी डॉक्टर साहब बाहर न गए। वहीं खड़े रहे। निर्मला ने फिर पूछा-कब तक आएँगी?

डॉक्टर साहब ने सिर झुकाए हुए कहा-आती ही होंगी।