फिर भी वह बाहर नहीं गए। उनके मन में चोर द्वन्द्व मचा हुआ था। औचित्य का बन्धन नहीं,भीरता का कच्चा तागा उनकी जबान को रोके हुए था।
निर्मला ने फिर कहा-कहीं घूमने-घामने लगी होंगी। मैं भी इस वक्त जाती हूँ।
भीरुता का कच्चा तागा भी टूट गया। नदी के कगार पर पहुँच कर भागती हुई सेना में अद्भुत शक्ति आ जाती है। डॉक्टर साहब ने सिर उठा कर निर्मला को देखा; और अनुराग में डूबे हुए स्वर में बोले-नहीं निर्मला,अव आती ही होंगी। अभी न जाओ। रोज सुधा की खातिर से बैठती हो,आज मेरी खातिर से बैठो। बताओ, कब तक इस आग में जला करूँ,सत्य कहता हूँ निर्मला.........!
निर्मला ने और कुछ नहीं सुना। उसे ऐसा जान पड़ा मानो सारी पृथ्वी चकर खा रही है,मानो उसके प्राणों पर सहस्रों वनों का आघात हो रहा है। उसने जल्दी से अलगनी पर लटकती हुई चादर उतार ली;और बिना मुँह से एक शब्द निकाले कमरे से निकल गई। डॉक्टर साहब खिसियाए हुए से रोना मुँह बनाए खड़े रहे। उसको रोकने की या और कुछ कहने की उनकी हिम्मत न पड़ी।
निर्मला ज्योंही द्वार पर पहुंची,उसने सुधा को ताँगे से उतरते देखा। सुधा उसे देखते ही जल्दी से उतर कर उसकी ओर लपकी और कुछ पूछना चाहती थी;मगर निर्मला ने उसे अवसर न दिया,