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पच्चीसवाँ परिच्छेद
 


तीर की तरह झपट कर चली गई। सुधा एक क्षण तक विस्मय की दशा में खड़ी रही। बात क्या है,उसकी समझ में कुछ न श्रा सका। वह व्यत्र हो उठी। जल्दी से अन्दर गई। महरी से पूछा कि क्या बात हुई है। उसे मालूम हुआ कि कहीं महरी या और किसी नौकर ने उसे कोई अपमान-सूचक बात कह दी है। वह अपराधी का पता लगाएगी; और उसे खड़े-खड़े निकाल देगी। लपकी हुई अपने कमरे में गई। अन्दर ऋदम रखते ही डॉक्टर साहब को मुँह लटकाए चारपाई पर बैठे देखा। पूछा-निर्मला यहाँ आई थी!

डॉक्टर ने सिर खुजलाते हुए कहा-हाँ,आई तो थी?

सुधा-किसी महरी-अहरी ने उन्हें कुछ कहा तो नहीं? मुझसे बोली तक नहीं,झपट कर निकल गई।

डॉक्टर साहब की मुख-कान्ति मलिन हो गई;कहा-यहाँ तो उन्हें किसी ने भी कुछ नहीं कहा।

सुधा-किसी ने कुछ कहा है! देखो, मैं पूछती हूँ न। ईश्वर जानता है,पता पा जाऊँगी तो खड़े-खड़े निकाल दूंगी। डॉक्टर साहब सिटपिटाते हुए बोले-मैने तो किसी को कुछ कहते नहीं मुना। तुम्हें उन्होंने देखा ही न होगा।

सुधा-वाह, देखा ही न होगा! उनके सामने तो मैं ताँगे से उत्तरी हूँ। उन्होंने मेरी ओर ताका भी; पर बोलीं कुछ नहीं। इस कमरे में आई थी?