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तीसरा परिच्छेद
 


रँगीली--तुम बाप-पूत दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो। दोनों उस गरीब लड़की के गले पर छुरी फेरना चाहते हो!

भुवन--जो ग़रीब है, उसे गरीबों ही के यहाँ सम्बन्ध करना चाहिए। अपनी हैसियत से बढ़ कर ......।

रँगीली--चुप भी रह, आया है वहाँ से हैसियत! लेकर तुम कहाँ के ऐसे धन्ना-सेठ हो। कोई आदमी द्वार पर आ जाय, तो एक लोटे पानी को तरस जाय। बड़ी हैसियत वाले बने हैं।

यह कह कर रँगीली वहाँ से उठ कर रसोई का प्रबन्ध करने चली गई। भुवनमोहन मुस्कुराता हुआ अपने कमरे में चला गया; और बावू साहब मूछों पर तान देते हुए बाहर आए कि मोटेराम को अन्तिम निश्चय सुना दें; पर उनका कहीं पता न था।

मोटेराम जी कुछ देर तक तो कहार की राह देखते रहे, जब उसके आने में बहुत देर हुई, तो उनसे न बैठा गया। सोचा, यहाँ वैठे-बैठे काम न चलेगा; कुछ उद्योग करना चाहिए। भाग्य के भरोसे यहाँ आड़ी दिए बैठे रहे, तो भूखों मर जायँगे; यहाँ तुम्हारी दाल नहीं गलने की। चुपके से लकड़ी उठाई; और जिधर वह कहार गया था, उसी तरफ़ चले। बाजार थोड़ी ही दूर पर था, एक क्षण में जा पहुँचे। देखा तो बुड्ढा एक हलवाई की दुकान पर बैठा चिलम पी रहा है! उसे देखते ही आपने बड़ी चेतकल्लुफी से कहा--अभी कुछ तैयार नहीं है क्या महरा, सरकार वहाँ बैठे विगड़ रहे हैं कि जाकर सो गया या कहीं ताड़ी पीने लगा। मैं ने कहा--सरकार, यह वात नहीं, वुड्ढा आदमी है; आते ही