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चौथा परिच्छेद
 

कल्याणी ने पुत्री को स्नेहमय दृष्टि से देखा। इसका कथन कितना सत्य है। भोले शब्दों में समस्या का कितना मार्मिक निरूपण है। सचमुच यह तो प्रसन्न होने की बात है कि ऐसे कुपात्रों से सम्बन्ध नहीं हुआ, रञ्ज की कोई बात नहीं। ऐसे कुमानुसों के बीच में वेचारी निर्मला की न जाने क्या गति हो? अपने नसीवों को रोती। जरा सा घी दाल में अधिक पड़ जाता, तो सारे घर में शोर मच जाता; जरा खाना ज्यादा पक जाता, तो सास दुनिया सिर पर उठा लेती। लड़का भी ऐसा ही लोभी है। बड़ी अच्छी बात हुई, नहीं तो बेचारी को उन्न भर रोना पड़ता। कल्याणी यहाँ से टठी, तो उसका हृदय हलका हो गया था।

लेकिन विवाह तो करना ही था, और हो सके तो इसी साल; नहीं तो दूसरे साल फिर नए सिरे से तैयारियाँ करनी पड़ेंगी। अब अच्छे घर की जरूरत न थी, अच्छे वर की ज़रूरत न थी। अभागिनी को अच्छा घर-घर कहाँ मिलता है। अब तो किसी भॉति सिर का बोझ उतारना था, किसी भाँति लड़की को पार लगाना था--उसे कुएँ में झोंकना था। वह रूपवती है, गुणशीला है, चतुर है, कुलीना है, तो हुआ करे; दहेज नहीं तो उसके सारे गुण दोष हैं। दहेज हो तो सारे दोप, गुण हैं। प्राणी का कोई मूल्य नहीं, केवल दहेज का मूल्य है। कितनी विषम भाग्यलीला है?

कल्याणी का दोष कुछ कम न था। अबला और विधवा होना ही उसे दोषों से मुक्त नहीं कर सकता। उसे अपने लड़के