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निर्मला
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अपनी लड़कियों से कहीं प्यारे थे। लड़के हल के बैल हैं, भूसे-खली पर पहला हक़ उनका है, उनके खाने से जो बचे वह गायों का! मकान था, कुछ नक़द था, कई हजार के गहने थे; लेकिन उसे अभी दो लड़कों का पालन-पोषण करना था, उन्हें पढ़ाना-लिखाना था, एक कन्या और भी चार-पाँच साल में विवाह करने के योग्य हो जायगी। इसलिए वह कोई बड़ी रकम दहेज में न दे सकती थी। आखिर लड़कों को भी तो कुछ चाहिए। वे क्या समझेगे कि हमारा भी कोई बाप था।

पण्डित मोटेराम को लखनऊ से लौटे पन्द्रह दिन बीत चुके थे। लौटने के बाद दूसरे ही दिन से वह वर की खोज में निकले थे। उन्होंने प्रण किया था, मैं इन लखनऊ वालों को दिखा दूंगा कि संसार में तुम्हीं अकेले नहीं हो, तुम्हारे ऐसे और कितने पड़े हुए हैं। कल्याणी रोज़ दिन गिना करती थी। आज उसने उन्हें पत्र लिखने का निश्चय किया और कलम दावात लेकर बैठी ही थी कि पण्डित मोटेराम ने पदार्पण किया।

कल्याणी--आइए पण्डित जी, मैं तो आपको खत लिखने जा रही थी। कब लौट?

मोटेराम--लौटा तो प्रातःकाल ही था; पर उसी समय एक सेठ के यहाँ से निमन्त्रण आ गया। कई दिन से तर माल न मिले थे। मैंने कहा कि लगे हाथ यह काम भी निपटाता चलूँ। अभी उधर ही से लौटा आ रहा हूँ, कोई पाँच सौ ब्राह्मणों की पङ्गत थी।