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पृष्ठ:निर्मला.djvu/७४

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छठा परिच्छेद
 

जायँ। पहले वालों से शुरू किया, फिर सुर्मे की वारी आई; यहाँ तक कि एक-दो महीने में उनका कलेवर ही बदल गया। गजलें याद करने का प्रस्ताव तो हास्यास्पद था लेकिन वीरता की डींग मारने में कोई हानि न थी।

उस दिन से वह रोज अपनी जवाँमर्दी का कोई न कोई प्रसङ्ग अवश्य छेड़ देते। निर्मला को सन्देह होने लगा कि कहीं उन्हें उन्माद का रोग तो नहीं हो रहा है। जो आदमी मूंग की दाल और मोटे आटे के दो फुल्के खाकर भी नमक सुलेमानी का मुहताज़ हो, उसके छैलेपन पर उन्माद का सन्देह हो तो आश्चर्य ही क्या? निर्मला पर इस पागलपन का और तो क्या रङ्ग जमता, हाँ उसे उन पर दया आने लगी। क्रोध और घृणा का भाव जाता रहा। क्रोध और घृणा उस पर होती है, जो अपने होश में हो। पागल आदमी तो दया ही का पात्र है। वह बात-बात में उनकी चुटकियाँ लेती, उनका मजाक उड़ाती, जैसे लोग पागलों के साथ किया करते हैं। हाँ, इसका ध्यान रखती थी कि यह समझ न जायँ। वह सोचती, बेचारा अपने पाप का प्रायश्चित्त कर रहा है। यह सारा स्वाँग केवल इसलिए तो है कि मैं अपना दुख भूल जाऊँ। आखिर अब भाग्य तो बदल सकता नहीं, इस बेचारे को क्यों जलाऊँ।

एक दिन रात को नौ बजे तोताराम बाँके बने हुए सैर करके लौटे; और निर्मला से बोले---आज तीन चोरों से सामना हो गया। मैं जरा शिवपुर की तरफ़ चला गया था। अँधेरा था ही। ज्योंही