निर्मला | ७२ |
रेल की सड़क के पास पहुँचा, तो तीन आदमी तलवार लिए हुए न जाने किधर से निकल पड़े। यक़ीन मानो, तीनों काले देव थे! मैं बिलकुल अकेला, हाथ में सिर्फ़ यह छड़ी थी। उधर तीनों तलवार बाँधे हुए, होश उड़ गए। समझ गया कि ज़िन्दगी का यहीं तक साथ था। मगर मैंने भी सोचा; मरता ही हूँ तो वीरों की मौत क्यों न मरूँ?
इतने में एक आदमी ने ललकार कहा––रख दे तेरे पास जो कुछ हो; और चुपके से चला जा!
मैं छड़ी सँभाल कर खड़ा हो गया और बोला––मेरे पास तो सिर्फ यह छड़ी है और इसका मूल्य एक आदमी का सिर है।
मेरे मुँह से इतना निकलना था कि तीनों तलवार खींच कर मुझ पर झपट पड़े; और मैं उनके वारों को छड़ी पर रोकने लगा। तीनों झल्ला-झल्ला कर वार करते थे, खटाके की आवाज़ होती थी; और मैं बिजली की तरह झपट कर उनके वारों को काट देता था। कोई दस मिनिट तक तीनों ने ख़ूब तलवार के जौहर दिखाए; पर मुझ पर रेफ़ तक न आई। मजबूरी यही थी कि मेरे हाथ में तलवार न थी। यदि कहीं तलवार होती, तो एक को जीता न छोड़ता। ख़ैर, कहाँ तक बयान करूँ? उस वक्त़ मेरे हाथों की सफाई देखने क़ाबिल थी। मुझे ख़ुद आश्चर्य हो रहा था कि यह चपलता मुझमें कहाँ से आ गई। जब तीनों ने देखा कि यहाँ दाल नहीं गलने की, तो तलवार म्यान में रख ली और मेरी पीठ ठोंक कर बोले––जवान, तुम-सा वीर आज तक नहीं देखा। हम तीनों तीन सौ पर भारी