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पृष्ठ:निर्मला.djvu/७६

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छठा परिच्छेद
 

हैं,गाँव के गाँव ढोल वजा कर लूटते हैं,पर आज तुमने हमें नीचा दिखा दिया। हम तुम्हारा लोहा मान गए। यह कह कर तीनों फिर नजरों से गायब हो गए!

निर्मला ने गम्भीर भाव से मुस्करा कर कहा-इस छड़ी पर तो तलवारों के बहुत से निशान बने हुए होंगे।

मुन्शी जी इस शङ्का के लिए तैयार न थे;पर कोई जवाब देना आवश्यक था। वोले—मैं वारों को वरावर खाली देता था। दो-चार चोटें छड़ी पर पड़ी थीं,तो उचटती हुई, जिनसे कोई निशान न पड़ सकता था।

अभी उनके मुँह से पूरी वात भी न निकली थी कि सहसा रुक्मिणी देवी वदहवास दौड़ती हुई आई और हाँफते हुए बोली-तोता,तोता,है कि नहीं?मेरे कमरे में एक साँप निकल आया है। मेरी चारपाई के नीचे बैठा हुआ है। मैं उठ कर भागी। मूआ कोई दो गज का होगा। फन निकाले फुफकार रहा है,जरा चलो तो,डण्डा लेते चलना।

तोताराम के चेहरे का रङ्ग उड़ गया, मुँह पर हवाइयाँ छूटने लगी; मगर मन के भावों को छिपा कर बोले-साँप यहाँ कहाँ? तुम्हें धोखा हुआ होगा। कोई रस्सी पड़ी होगी।

रुक्मिणी-अरे मैंने अपनी आखों देखा है। जरा चल कर देख न लो। है-है!मर्द होकर डरते हो!!

मुन्शी जी घर में से तो निकले; लेकिन बरामदे में फिर ठिठक गए। उनके पाँव ही न उठते थे। कलेजा धड़-धड़ कर रहा था।