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जो पंखा झल रहे थे, सरकारी नौकर हैं। सरकार से दो अर्दली मिले हैं न! इसी से पड़े हुए हैं। मैं भी सोचता हूँ, जैसा तेरा ताना-बाना वैसे मेरी भरनी! कई साल कट गए हैं, साल दो साल और इसी तरह कट जाएँगे।

मोटेराम-तो तुम्हीं अकेले हो? नाम तो कई कहारों का लेते हैं।

कहार—वह सब इन दो-तीन महीनों के अंदर आए और छोड़-छोड़कर चले गए। यह अपना रोब जमाने को अभी तक उनका नाम जपा करते हैं। कहीं नौकरी दिलाइएगा, चलूँ?

मोटेराम-अजी, बहुत नौकरी है। कहार तो आजकल ढूँढ़े नहीं मिलते। तुम तो पुराने आदमी हो, तुम्हारे लिए नौकरी की क्या कमी है। यहाँ कोई ताजी चीज है? मुझसे कहने लगे, खिचड़ी बनाइएगा या बाटी लगाइएगा? मैंने कह दिया, सरकार, बुड्ढा आदमी है, रात को उसे मेरा भोजन बनाने में कष्ट होगा, मैं कुछ बाजार ही से खा लूँगा। इसकी आप चिंता न करें। बोले, अच्छी बात है। कहार आपको दुकान पर मिलेगा। बोलो साहजी, कुछ तर माल तैयार है? लड्डू तो ताजे मालूम होते हैं, तौल दो एक सेर भर। आ जाऊँ वहीं ऊपर न?

यह कहकर मोटेरामजी हलवाई की दुकान पर जा बैठे और तर माल चखने लगे। खूब छककर खाया। ढाई-तीन सेर चट कर गए। खाते जाते थे और हलवाई की तारीफ करते जाते थे। शाहजी, तुम्हारी दुकान का जैसा नाम सुना था, वैसा ही माल भी पाया। बनारसवाले ऐसे रसगुल्ले नहीं बना पाते, कलाकंद अच्छी बनाते हैं, पर तुम्हारी उनसे बुरी नहीं। माल डालने से अच्छी चीज नहीं बन जाती, विद्या चाहिए।

हलवाई-कुछ और लीजिए महाराज! थोड़ी सी रबड़ी मेरी तरफ से लीजिए।

मोटेराम-इच्छा तो नहीं है, लेकिन दे दो पाव-भर।

हलवाई-पाव-भर क्या लीजिएगा? चीज अच्छी है, आध सेर तो लीजिए।

खूब इच्छापूर्ण भोजन करके पंडितजी ने थोड़ी देर तक बाजार की सैर की और नौ बजते-बजते मकान पर आए। यहाँ सन्नाटा सा छाया हुआ था। एक लालटेन जल रही थी। अपने चबूतरे पर बिस्तर जमाया और सो गए।

सबेरे अपने नियमानुसार कोई आठ बजे उठे तो देखा कि बाबूसाहब टहल रहे हैं। इन्हें जगा देखकर वह पालागन कर बोले–महाराज, आज रात कहाँ चले गए? मैं बड़ी रात तक आपकी राह देखता रहा। भोजन का सब सामान बड़ी देर तक रखा रहा। जब आप न आए तो रखवा दिया गया। आपने कुछ भोजन किया था या नहीं?

मोटेराम-हलवाई की दुकान में कुछ खा आया था।

भालचंद्र-अजी पूरी-मिठाई में वह आनंद कहाँ, जो बाटी और दाल में है। दस-बारह आने खर्च हो गए होंगे, फिर भी पेट न भरा होगा, आप मेरे मेहमान हैं, जितने पैसे लगे हों ले लीजिएगा।

मोटेराम-आप ही के हलवाई की दुकान पर खाया था, वह जो नुक्कड़ पर बैठता है।

भालचंद्र-कितने पैसे देने पड़े?

मोटेराम-आपके हिसाब में लिखा दिए हैं।

भालचंद्र—जितनी मिठाइयाँ ली हों, मुझे बता दीजिए, नहीं तो पीछे से बेईमानी करने लगेगा। एक ही ठग है।

मोटेराम–कोई ढाई सेर मिठाई थी और आधा सेर रबड़ी।

बाबू साहब ने विस्फारित नेत्रों से पंडितजी को देखा, मानो कोई अचंभे की बात सुनी हो। तीन सेर तो कभी यहाँ महीने भर का टोटल भी न होता था और यह महाशय एक ही बार में कोई चार रुपए का माल उड़ा गए। अगर एक आध दिन और रह गए तो बधिया बैठ जाएगी। पेट है या शैतान की कब्र? तीन सेर! कुछ ठिकाना है! उद्विग्न दशा में दौड़े हुए अंदर गए और रंगीली से बोले-कुछ सुनती हो, यह महाशय कल तीन सेर मिठाई उड़ा गए। तीन सेर पक्की तौल!