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रंगीलीबाई ने विस्मित होकर कहा—अजी नहीं, तीन सेर भला क्या खा जाएगा! आदमी है या बैल?

भालचंद्र—तीन सेर तो अपने मुँह से कह रहा है। चार सेर से कम न होगा, पक्की तौल!

रंगीली–पेट में सनीचर है क्या?

भालचंद्र-आज और रह गया तो छह सेर पर हाथ फेरेगा।

रंगीली-तो आज रहे ही क्यों, खत का जवाब जो देना हो, देकर विदा करो। अगर रहे तो साफ कह देना कि हमारे यहाँ मिठाई मुफ्त नहीं आती। खिचड़ी बनाना हो बनाए, नहीं तो अपनी राह ले। जिन्हें ऐसे पेटुओं को खिलाने से मुक्ति मिलती हो, वे खिलाएँ हमें ऐसी मुक्ति न चाहिए!

मगर पंडित विदा होने को तैयार बैठे थे, इसलिए बाबूसाहब को कौशल से काम लेने की जरूरत न पड़ी। पूछा-क्या तैयारी कर दी महाराज?

मोटेराम-हाँ सरकार, अब चलूँगा। नौ बजे की गाड़ी मिलेगी न?

भालचंद्र-भला आज तो और रहिए।

यह कहते-कहते बाबूजी को भय हुआ कि कहीं यह महाराज सचमुच न रह जाएँ, इसलिए वाक्य को यों पूरा किया–हाँ, वहाँ भी लोग आपका इंतजार कर रहे होंगे।

मोटेराम—एक-दो दिन की तो कोई बात न थी और विचार भी यही था कि त्रिवेणी का स्नान करूँगा, पर बुरा न मानिए तो कहूँ, आप लोगों में ब्राह्मणों के प्रति लेशमात्र भी श्रद्धा नहीं है। हमारे जजमान हैं, जो हमारा मुँह जोहते रहते हैं कि पंडितजी कोई आज्ञा दें तो उसका पालन करें। हम उनके द्वार पहुँच जाते हैं तो वे अपना धन्य भाग्य समझते हैं और सारा घर-छोटे से बड़े तक हमारी सेवा-सत्कार में मगन हो जाते हैं। जहाँ अपना आदर नहीं, वहाँ एक क्षण भी ठहरना असह्य है। जहाँ ब्राह्मण का आदर नहीं, वहाँ कल्याण नहीं हो सकता।

भालचंद्र महाराज, हमसे तो ऐसा अपराध नहीं हुआ।

मोटेराम–अपराध नहीं हुआ! और अपराध कहते किसे हैं? अभी आप ही ने घर में जाकर कहा कि यह महाशय तीन सेर मिठाई चट कर गए, पक्की तौल। आपने अभी खानेवाले देखे कहाँ? एक बार खिलाइए तो आँखें खुल जाएँ। ऐसे-ऐसे महान् पुरुष पड़े हैं, जो पसेरी भर मिठाई खा जाएँ और डकार तक न लें। एक-एक मिठाई खाने के लिए हमारी चिरौरी की जाती है, रुपए दिए जाते हैं। हम भिक्षुक ब्राह्मण नहीं हैं, जो आपके द्वार पर पड़े रहें। आपका नाम सुनकर आए थे, यह न जानते थे कि यहाँ मेरे भोजन के भी लाले पड़ेंगे। जाइए, भगवान् आपका कल्याण करें!

बाबू साहब ऐसा झेंपे कि मुँह से बात न निकली। जिंदगी भर में उनपर कभी ऐसी फटकार न पड़ी थी। बहुत बातें बनाई—आपकी चर्चा न थी, एक-दूसरे ही महाशय की बात थी, लेकिन पंडितजी का क्रोध शांत न हुआ। वह सबकुछ सह सकते थे, पर अपने पेट की निंदा न सह सकते थे। औरतों को रूप की निंदा जितनी प्रिय लगती है, उससे कहीं अधिक अप्रिय पुरुषों को अपने पेट की निंदा लगती है। बाबू साहब मनाते तो थे, पर धड़का भी समाया हुआ था कि यह टिक न जाएँ। उनकी कृपणता का परदा खुल गया था, अब इसमें संदेह न था। उस परदे को ढाँकना जरूरी था। अपनी कृपणता को छिपाने के लिए उन्होंने कोई बात उठा न रखी, पर होनेवाली बात होकर रही। पछता रहे थे कि कहाँ से घर में इसकी बात कहने गया और कहा भी तो उच्च स्वर में। यह दुष्ट भी कान लगाए सुनता रहा, किंतु अब पछताने से क्या हो सकता था? न जाने किस मनहूस की सूरत देखी थी, यह विपत्ति गले पड़ी। अगर इस वक्त यहाँ से रुष्ट होकर चला गया तो वहाँ जाकर बदनाम करेगा और मेरा सारा कौशल खुल जाएगा। अब तो इसका मुँह बंद कर देना ही पड़ेगा।