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थी। जानती थी कि यह जो बातें पूछेगी, उसके बताने में मुझे संकोच होगा। आखिर एक बार कृष्णा पूछ ही बैठीजीजाजी भी आएँगे न?

निर्मला-आने को कहा तो है।

कृष्णा—अब तो तुमसे प्रसन्न रहते हैं न या अब भी वही हाल है? मैं तो सुना करती थी दुहाजू पति स्त्री को प्राणों से भी प्रिय समझते हैं, वहाँ बिल्कुल उलटी बात देखी। आखिर किस बात पर बिगड़ते रहते हैं?

निर्मला—अब मैं किसी के मन की बात क्या जानूँ?

कृष्णा-मैं तो समझती हूँ, तुम्हारी रुखाई से वह चिढ़ते होंगे। तुम तो यहीं से जली हुई गई थी। वहाँ भी उन्हें कुछ कहा होगा।

निर्मला—यह बात नहीं है, कृष्णा। मैं सौगंध खाकर कहती हूँ, जो मेरे मन में उनकी ओर से जरा भी मैल हो। मुझसे जहाँ तक हो सकता है, उनकी सेवा करती हूँ। अगर उनकी जगह कोई देवता भी होता तो भी मैं इससे ज्यादा और कुछ न कर सकती। उन्हें भी मुझसे प्रेम है। बराबर मेरा मुख देखते रहते हैं, लेकिन जो बात उनके और मेरे काबू के बाहर है, उसके लिए वह क्या कर सकते हैं और मैं क्या कर सकती हूँ? न वह जवान हो सकते हैं, न मैं बुढ़िया हो सकती हूँ। जवान बनने के लिए वह न जाने कितने रस और भस्म खाते रहते हैं। मैं बुढ़िया बनने के लिए दूध-घी सब छोड़े बैठी हूँ। सोचती हूँ, मेरे दुबलेपन ही से अवस्था का भेद कुछ कम हो जाए, लेकिन न उन्हें पौष्टिक पदार्थों से कुछ लाभ होता है, न मुझे उपवासों से। जब से मंसाराम का देहांत हो गया है, तब से उनकी दशा और खराब हो गई है।

कृष्णा—मंसाराम को तुम भी बहुत प्यार करती थीं?

निर्मला—वह लड़का ही ऐसा था कि जो देखता था, प्यार करता था। ऐसी बड़ी-बड़ी डोरेदार आँखें मैंने किसी की नहीं देखीं। कमल की भाँति मुख हरदम खिला रहता था। ऐसा साहसी कि अगर अवसर आ पड़ता तो आग में फाँद जाता। कृष्णा, मैं तुमसे कहती हूँ, जब वह मेरे पास आकर बैठ जाता तो मैं अपने को भूल जाती थी। जी चाहता था, वह हरदम सामने बैठा रहे और मैं देखा करूँ। मेरे मन में पाप का लेश भी न था। अगर एक क्षण के लिए भी मैंने उसकी ओर किसी और भाव से देखा हो तो मेरी आँखें फूट जाएँ, पर न जाने क्यों उसे अपने पास देखकर मेरा हृदय फूला न समाता था, इसीलिए मैंने पढ़ने का स्वाँग रचा, नहीं तो वह घर में आता ही न था। यह मैं जानती हूँ कि अगर उसके मन में पाप होता तो मैं उसके लिए सबकुछ कर सकती थी।

कृष्णा-अरे बहन, चुप रहो, कैसी बातें मुँह से निकालती हो?

निर्मला–हाँ, यह बात सुनने में बुरी मालूम होती है और है भी बुरी, लेकिन मनुष्य की प्रकृति को तो कोई बदल नहीं सकता। तू ही बता—एक पचास वर्ष के मर्द से तेरा विवाह हो जाए तो तू क्या करेगी?

कृष्णा—बहन, मैं तो जहर खाकर सो रहूँ। मुझसे तो उसका मुँह भी न देखते बने।

निर्मला—तो बस यही समझ ले। उस लड़के ने कभी मेरी ओर आँख उठाकर नहीं देखा, लेकिन बुड्ढे तो शक्की होते ही हैं। तुम्हारे जीजा उस लड़के के दुश्मन हो गए और आखिर उसकी जान लेकर ही छोड़ी। जिस दिन उसे मालूम हो गया कि पिताजी के मन में मेरी ओर से संदेह है, उसी दिन से उसे ज्वर चढ़ा, जो जान लेकर ही उतरा। हाय! उस अंतिम समय का दृश्य आँखों से नहीं उतरता। मैं अस्पताल गई थी, वह ज्वर में बेहोश पड़ा था, उठने की शक्ति न थी, लेकिन ज्यों ही मेरी आवाज सुनी, चौंककर उठ बैठा और 'माता-माता' कहकर मेरे पैरों पर गिर पड़ा। (रोकर) कृष्णा, उस समय ऐसा जी चाहता था; अपने प्राण निकाल कर उसे दे दूँ। मेरे पैरों पर ही वह मूर्च्छित हो गया और फिर आँखें न खोलीं। डॉक्टर ने उसकी देह में ताजा खून डालने का प्रस्ताव किया था। यही सुनकर मैं