पृष्ठ:निर्मला.pdf/९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

कि मुंशीजी गोली खाए हुए मनुष्य की भाँति जमीन पर गिर पड़े।

21.

रुक्मिणी ने निर्मला से त्योरियाँ बदलकर कहा—क्या नंगे पाँव ही मदरसे जाएगा?

निर्मला ने बच्ची के बाल गूंथते हुए कहा—मैं क्या करूँ? मेरे पास रुपए नहीं हैं।

रुक्मिणी—गहने बनवाने को रुपए जुड़ते हैं, लड़के के जूतों के लिए रुपयों में आग लग जाती है। दो तो चले ही गए, क्या तीसरे को भी रुला-रुलाकर मार डालने का इरादा है? निर्मला ने एक साँस खींचकर कहा—जिसको जीना है, जिएगा, जिसको मरना है, मरेगा। मैं किसी को मारने-जिलाने नहीं जाती।

आजकल एक-न-एक बात पर निर्मला और रुक्मिणी में रोज ही झड़प हो जाती थी। जब से गहने चोरी गए हैं, निर्मला का स्वभाव बिल्कुल बदल गया है। वह एक-एक कौड़ी दाँत से पकड़ने लगी है। सियाराम रोते-रोते चाहे जान दे दे, मगर उसे मिठाई के लिए पैसे नहीं मिलते और यह बरताव कुछ सियाराम ही के साथ नहीं है, निर्मला स्वयं अपनी जरूरतों को टालती रहती है। धोती जब तक फटकर तार-तार न हो जाए, नई धोती नहीं आती। महीनों सिर का तेल नहीं मँगाया जाता। पान खाने का उसे शौक था, कई-कई दिन तक पानदान खाली पड़ा रहता है, यहाँ तक कि बच्ची के लिए दूध भी नहीं आता। नन्हे से शिशु का भविष्य विराट रूप धारण करके उसके विचार-क्षेत्र पर मँडराता रहता।

मुंशीजी ने अपने को संपूर्णतया निर्मला के हाथों में सौंप दिया है। उसके किसी काम में दखल नहीं देते। न जाने क्यों उससे कुछ दबे रहते हैं। वह अब बिना नागा कचहरी जाते हैं। इतनी मेहनत उन्होंने जवानी में भी न की थी। आँखें खराब हो गई हैं, डॉक्टर सिन्हा ने रात को लिखने-पढ़ने की मुमानियत कर दी है, पाचनशक्ति पहले ही दुर्बल थी, अब और भी खराब हो गई है, दमे की शिकायत भी पैदा ही चली है, पर बेचारे सबेरे से आधी-आधी रात तक काम करते हैं। काम करने को जी चाहे या न चाहे, तबीयत अच्छी हो या न हो, काम करना ही पड़ता है। निर्मला को उनपर जरा भी दया नहीं आती। वही भविष्य की भीषण चिंता उसके आंतरिक सद्भावों का सर्वनाश कर रही है। किसी भिक्षुक की आवाज सुनकर झल्ला पड़ती है। वह एक कौड़ी भी खर्च करना नहीं चाहती।

एक दिन निर्मला ने सियाराम को घी लाने के लिए बाजार भेजा। भुंगी पर उनका विश्वास न था, उससे अब कोई सौदा न मँगाती थी। सियाराम में काट-कपट की आदत न थी। औने-पौने करना न जानता था। प्रायः बाजार का सारा काम उसी को करना पड़ता। निर्मला एक-एक चीज को तोलती, जरा भी कोई चीज तोल में कम पड़ती तो उसे लौटा देती। सियाराम का बहुत सा समय इसी लौट-फेरी में बीत जाता था। बाजार वाले उसे जल्दी कोई सौदा न देते। आज भी वही नौबत आई। सियाराम अपने विचार से बहुत अच्छा घी, कई दुकान से देखकर लाया, लेकिन

निर्मला ने उसे सूँघते ही कहा—घी खराब है, लौटा आओ।

सियाराम ने झुंझलाकर कहा-इससे अच्छा घी बाजार में नहीं है, मैं सारी दुकानें देखकर लाया हूँ? निर्मला तो मैं झूठ कहती हूँ?

सियाराम यह मैं नहीं कहता, लेकिन बनिया अब घी वापिस न लेगा। उसने मुझसे कहा था, जिस तरह देखना चाहो, यहीं देखो, माल तुम्हारे सामने है। बोहिनी-बट्टे के वक्त में सौदा वापस न लूँगा। मैंने सूँघकर, चखकर लिया। अब किस मुँह से लौटाने जाऊँ?