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निर्मला ने दाँत पीसकर कहा—घी में साफ चरबी मिली हुई है और तुम कहते हो, घी अच्छा है। मैं इसे रसोई में न ले जाऊँगी, तुम्हारा जी चाहे लौटा दो, चाहे खा जाओ।

घी की हाँड़ी वहीं छोड़कर निर्मला घर में चली गई। सियाराम क्रोध और क्षोभ से कातर हो उठा। वह कौन मुँह लेकर लौटाने जाए? बनिया साफ कह देगा—मैं नहीं लौटाता। तब वह क्या करेगा? आस-पास के दस-पाँच बनिए और सड़क पर चलने वाले आदमी खड़े हो जाएँगे। उन सबों के सामने उसे लज्जित होना पड़ेगा। बाजार में यों ही कोई बनिया उसे जल्दी सौदा नहीं देता, वह किसी दुकान पर खड़ा होने नहीं पाता। चारों ओर से उसी पर लताड़ पड़ेगी। उसने मन-ही-मन झुँझलाकर कहा—पड़ा रहे घी, मैं लौटाने न जाऊँगा।

मातृ-हीन बालक के समान दुःखी, दीन-प्राणी संसार में दूसरा नहीं होता और सारे दुःख भूल जाते हैं। बालक को माता याद आई, अम्माँ होती तो क्या आज मुझे यह सब सहना पड़ता? भैया चले गए, मैं ही अकेला यह विपत्ति सहने के लिए क्यों बचा रहा? सियाराम की आँखों में आँसू की झड़ी लग गई। उसके शोक कातर कंठ से एक गहरे निःश्वास के साथ मिले हुए ये शब्द निकल आए-अम्माँ! तुम मुझे भूल क्यों गई, क्यों नहीं बुला लेती?

सहसा निर्मला फिर कमरे की तरफ आई। उसने समझा था, सियाराम चला गया होगा। उसे बैठा देखा तो गुस्से से बोली-तुम अभी तक बैठे ही हो? आखिर खाना कब बनेगा?

सियाराम ने आँखें पोंछ डालीं। बोला—मुझे स्कूल जाने में देर हो जाएगी।

निर्मला—एक दिन देर हो जाएगी तो कौन हरज है? यह भी तो घर ही का काम है?

सियाराम-रोज तो यही धंधा लगा रहता है। कभी वक्त पर स्कूल नहीं पहुँचता। घर पर भी पढ़ने का वक्त नहीं मिलता। कोई सौदा दो-चार बार लौटाए बिना नहीं जाता। डाँट तो मुझ पर पड़ती है, शर्मिंदा तो मुझे होना पड़ता है, आपको क्या?

निर्मला–हाँ, मुझे क्या? मैं तो तुम्हारी दुश्मन ठहरी! अपना होता, तब तो उसे दुःख होता। मैं तो ईश्वर से मनाया करती हूँ कि तुम पढ़-लिख न सको। मुझमें सारी बुराइयाँ-ही-बुराइयाँ हैं, तुम्हारा कोई कसूर नहीं। विमाता का नाम ही बुरा होता है। अपनी माँ विष भी खिलाए तो अमृत है, मैं अमृत भी पिलाऊँ तो विष हो जाएगा। तुम लोगों के कारण मैं मिट्टी में मिल गई। रोते-रोते उम्र काटी जाती है, मालूम ही न हुआ कि भगवान् ने किसलिए जन्म दिया था और तुम्हारी समझ में मैं विहार कर रही हूँ। तुम्हें सताने में मुझे बड़ा मजा आता है। भगवान् भी नहीं पूछते कि सारी विपत्ति का अंत हो जाता।

यह कहते-कहते निर्मला की आँखें भर आईं। अंदर चली गई। सियाराम उसको रोते देखकर सहम उठा। ग्लानि तो नहीं आई, पर शंका हुई कि न जाने कौन सा दंड मिले। चुपके से हाँड़ी उठा ली और घी लौटाने चला, इस तरह जैसे कोई कुत्ता किसी नए गाँव में जाता है। उसे देखकर साधारण बुद्धि का मनुष्य भी अनुमान कर सकता था कि वह अनाथ है।

सियाराम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था, आनेवाले संग्राम के भय से उसकी हृदय-गति बढ़ती जाती थी। उसने निश्चय किया-बनिए ने घी न लौटाया तो वह घी वहीं छोड़कर चला आएगा। झख मारकर बनिया आप ही बुलाएगा। बनिए को डाँटने के लिए भी उसने शब्द सोच लिए। वह कहेगा क्यों साहूजी, आँखों में धूल झोंकते हो? दिखाते हो चोखा माल और और देते हो रद्दी माल? पर यह निश्चय करने पर भी उसके पैर आगे बहुत धीरे-धीरे उठते थे। वह यह न चाहता था, बनिया उसे आता हुआ देखे। वह अकस्मात् ही उसके सामने पहुँच जाना चाहता था, इसलिए वह चक्कर काटकर दूसरी गली से बनिए की दूकान पर गया।

बनिए ने उसे देखते ही कहा-हमने कह दिया था कि हम सौदा वापस न लेंगे। बोलो, कहा था कि नहीं।