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सियाराम ने बिगड़कर कहा-तुमने वह घी कहाँ दिया, जो दिखाया था? दिखाया एक माल, दिया दूसरा माल, लौटाओगे कैसे नहीं? क्या कुछ राहजनी है?

साह–इससे चोखा घी बाजार में निकल आए तो जरीबाना दूं। उठा लो हाँड़ी और दो-चार दुकान देख आओ।

सियाराम-हमें इतनी फुर्सत नहीं है। अपना घी लौटा लो।

साह–घी न लौटेगा।

बनिए की दुकान पर एक जटाधारी साधु बैठा हुआ यह तमाशा देख रहा था। उठकर सियाराम के पास आया और हाँड़ी का घी सूंघकर बोला-बच्चा, घी तो बहुत अच्छा मालूम होता है।

साह ने शह पाकर कहा-बाबाजी, हम लोग तो आप ही इनको घटिया माल नहीं देते। खराब माल क्या जाने-सुने ग्राहकों को दिया जाता है?

साधु-घी ले जाव बच्चा, बहुत अच्छा है।

सियाराम रो पड़ा। घी को बुरा सिद्ध करने के लिए उसके पास अब क्या प्रमाण था? बोला—वही तो कहती हैं, घी अच्छा नहीं है, लौटा आओ। मैं तो कहता था कि घी अच्छा है।

साधु-कौन कहता है? साह—इसकी अम्माँ कहती होंगी। कोई सौदा उनके मन ही नहीं भाता।

बेचारे लड़के को बार-बार दौड़ाया करती हैं। सौतेली माँ है न! अपनी माँ हो तो कुछ खयाल भी करे।

साधु ने सियाराम को सदय नेत्रों से देखा, मानो उसे त्राण देने के लिए उनका हृदय विकल हो रहा है। तब करुण स्वर से बोले तुम्हारी माता का स्वर्गवास हुए कितने दिन हुए बच्चा?

सियाराम-छठा साल है।

साधु-तो तुम उस वक्त बहुत ही छोटे रहे होगे। भगवान् तुम्हारी लीला कितनी विचित्र है। इस दुधमुँहे बालक को तुमने मातृ-प्रेम से वंचित कर दिया। बड़ा अनर्थ करते हो भगवान्! छह साल का बालक और राक्षसी विमाता के पाले पड़े! धन्य हो दयानिधि! साहजी, बालक पर दया करो, घी लौटा लो, नहीं तो इसकी माता इसे घर में रहने न देगी। भगवान् की इच्छा से तुम्हारा घी जल्द बिक जाएगा। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ रहेगा।

साहजी ने रुपए वापस न किए। आखिर लड़के को फिर घी लेने आना ही पड़ेगा। न जाने दिन में कितनी बार चक्कर लगाना पड़े और किस जालिए से पाला पड़े। उसकी दुकान में जो घी सबसे अच्छा था, वह सियाराम को दे दिया। सियाराम दिल में सोच रहा था, बाबाजी कितने दयालु हैं? इन्होंने सिफारिश न की होती तो साहजी क्यों अच्छा घी देते?

सियाराम घी लेकर चला तो बाबाजी भी उसके साथ हो लिए। रास्ते में मीठी-मीठी बातें करने लगे।

'बच्चा, मेरी माता भी मुझे तीन साल का छोड़कर परलोक सिधारी थीं। तभी से मातृ-विहीन बालकों को देखता हूँ तो मेरा हृदय फटने लगता है।'

सियाराम ने पूछा-आपके पिताजी ने भी तो दूसरा विवाह कर लिया था?

साधु-हाँ, बच्चा, नहीं तो आज साधु क्यों होता? पहले तो पिताजी विवाह न करते थे। मुझे बहुत प्यार करते थे, फिर न जाने क्यों मन बदल गया, विवाह कर लिया। साधु हूँ, कटु वचन मुँह से नहीं निकालना चाहिए, पर मेरी विमाता जितनी ही सुंदर थीं, उतनी ही कठोर थीं। मुझे दिन-दिन-भर खाने को न देती, रोता तो मारतीं। पिताजी की आँखें भी फिर गईं। उन्हें मेरी सूरत से घृणा होने लगी। मेरा रोना सुनकर मुझे पीटने लगते। अंत में मैं एक दिन घर से निकल खड़ा हुआ।