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नैषध-चरित-चर्चा

ममादरीदं विदरी तुमान्तरं
तदर्थिकल्पद्रुम ! किञ्चिदर्थये;
मिदां हृदि द्वारमवाप्य मैव मे
हतासुभिः प्राणसमः समं गमः ।

(सर्ग ९, श्लोक १००)
 

भावार्थ—हे अथिकल्पद्रुम ! अब मेरा हृदय विदीर्ण होने ही चाहता है । इससे मैं तुमसे कुछ माँगती हूँ । हे प्राणसम ! मेरा हृदय फटने से दरार रूपो जो द्वार हो जायगा, उस द्वार से, मेरे पापी प्राणों के साथ, मेरे हृदय से कहीं तुम न चले जाना! बस, यही मेरी याचना है।

दमयंती का यह कहना नल के ऊपर वजाघात-सा हुआ। क्या ही अपूर्व कवित्व है ! याचकों के कल्पद्रुम से उसको प्रियतमा की यह याचना! इतनी तुच्छ ! याचना क्या कि प्राण चले जाय , परंतु तुम न जाओ। क्योंकि, तुम्हारे रहने से, वासना के बल, मैं अन्य जन्म में तुमको प्राप्त करने को अद्यापि आशा रखती हूँ। दमयंती का यहो आशय जान पड़ता है । इस पाषाण-द्रावक विलाप और इस महाप्रेमशालिनी याचना को सुनकर नल अपना दूतत्व भूल गए । उनका सारा ज्ञान जाता रहा । वह इस प्रकार प्रलाप करने लगे—

अवि प्रिये ! कस्य कृते विलप्यते ?
विलिप्यते हा मुखमश्रुविन्दुभिः ।