विशंक्य सूत्रं पुरुषायितस्य तद्
भविष्यतोऽस्मायि तदा तदालिमिः।
भावार्थ—कन्यादान के समय दमयंती के कर-कमल को नल के कर के ऊपर देख—आगे होनेवाले पुरुषायित का अभी से सूत्रपात हुआ—इस प्रकार मन में तर्क करके दमयंती की सहेलियाँ मुस्काने लगी।
और-और द्वीपों के स्वामियों, देवतों तथा वासुकि आदि नागों का वर्णन करके, दमयंती को साथ लिए हुए, भरतखंड के राजवर्ग के सम्मुख आकर सरस्वती कहती है—
देव्याभ्यधायि भव भीरु ! घृतावधाना
भूमीभुजस्त्यात भीमभुवो निरीक्षाम् ।
आलोकितामपि पुनः पिबतां दृशैता-
मिच्छापि गच्छति न वत्सरकोटिभिर्वः ।
भावार्थ—हे भीरु ! (दमयंति !) सावधान होकर श्रवण कर । हे राजवर्ग ! आप लोग भी अब दमयंती की ओर देखना बंद कीजिए । क्योंकि करोड़ों वर्ष पर्यंत बार-बार देख- करके भी, इस लावण्य को नेत्र द्वारा यदि आप पान करते रहेंगे, तो भी आपकी कदापि तृप्ति न होगी।
जिस प्रकार दमयंती को पुनः पुनः अवलोकन करके फिर भी उसकी ओर देखने की इच्छा राजा लोगों की बनी ही