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श्रीहर्ष नाम के तीन पुरुष

विंसेंट स्मिथ हर्ष का राजत्व-काल १०८९ से ११०१ ईसवी तक मानते हैं। राजतरंगिणी के सप्तम तरंग का श्लोक ६११ यह है—

सोऽशेषदेशभाषाज्ञः सर्वभाषासु सत्कविः ।
कृती विद्यानिधिः प्राप ख्याति देशान्तरेष्वपि ।

इससे स्पष्ट है कि राजा श्रीहर्ष सर्व-भाषा-निपुण, परम विद्वान् और उत्तम कवि था। परंतु उसका बनाया हुआ नैषध- चरित कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि ग्रंथकार ने ग्रंथ के अंत में स्वयं लिखा है—

ताम्बूलद्वयमासनन्च लभते यः कान्यकुब्जेश्वरात् ।

जिसे कान्यकुब्ज-नरेश के यहाँ पान के दो बीड़े और आसन प्राप्त होने का गर्व है, वह कदापि स्वयं राजा नहीं हो सकता। फिर, जिस श्रीहर्ष ने नैषध-चरित बनाया है, उसी ने 'गौडोर्वीशकुलप्रशस्ति' और 'साहसीक-चरित' भी बनाया है। यह बात, जैसा कि आगे दिखलाया जायगा, नैषध ही से स्पष्ट है। तब कहिए, एक राजा दूसरे राजा की प्रशंसा में क्यों काव्य-रचना करने बैठेगा? एक बात और भी है। वह यह कि राजतरंगिणी में नैषध-चरित का कुछ भी उल्लेख नहीं। जिस समय जिसने जो-जो ग्रंथ लिखे हैं, उसका सविस्तर वर्णन इस ग्रंथ में है। परंतु नैषध-चरित का नाम न होने से यही निश्चय होता है कि इस महाकाव्य का कर्ता कोई और ही है। प्रसिद्ध नाटक 'रत्नावली', 'प्रियदर्शिका' और 'नागानंद' भी श्रीहर्ष ही के नाम