आयान्त्या तुल्यकालं कमलवनरुदेवारुणा वो विभूत्यै
भूयासुर्भासयन्तो भुवनमभिनवा मानवो मानवीयाः।
चंडीशतक
मा भाङ्क्षीर्विभ्रमं भ्रूरधर! विधुरता केयमस्यास्य! रागं
पाणे! प्राण्येव नाऽयं[१] कलयसि कलहश्रद्धया किं त्रिशूलम्;
इत्युद्यत्कोपकेतून्प्रकृतिमवयवान्प्रापयन्त्येव देव्या
न्यस्तो वो मूर्ध्नि मुष्यान्मरुदसुहृदसून्संहरन्नङ्न्घिरंहः।
सूर्यशतक का श्लोक अनुप्रास-बाहुल्य से भरा हुआ है। उसमें उतना रस नहीं है, जितना चंडीशतक के श्लोक में है। चंडीशतक का पद्य बहुत सरस है। इस कारण हम उसका भावार्थ भी लिखे देते हैं—
हे भृकुटि! तू अपने स्वाभाविक विभ्रम का भंग मत कर। हे ओष्ठ! यह तेरी व्याकुलता कैसी? हे मुख! (क्रोधव्यजक) अरुणिमा को छोड़। हे हस्त! यह एक साधारण प्राणी है; कोई विलक्षण जीव नहीं। फिर, युद्ध की इच्छा से तू क्यों त्रिशूल उठा रहा है? काप के चिह्नों से युक्त अपने अवयवों को इस प्रकार संबोधन-पूर्वक प्रकृतिस्थ-सी करनेवाली भगवती चंडिका का, महिषासुर के प्राण हरण करके, उसके मस्तक पर रक्खा हुआ चरण तुम्हारा पातकोत्पाटन करे!
इन श्लोकों में 'वः' (तुम्हारा) के स्थान में यदि 'नः'
- ↑ ना = पुरुषः।