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पृष्ठ:नैषध-चरित-चर्चा.djvu/४२

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श्रीहर्ष का समयादि-निरूपण

यह राजा अस्त्री (पुरुष तथा अस्त्रधारी) को स्त्री बना देता है। शस्त्रधारी पुरुष, इसके सम्मुख स्त्रीवत् अपने प्राण बचाते हैं। यह श्लोक बहुत ही अच्छा है । इसमें 'गोविंदनंदन' और 'अस्त्री' शब्द द्वयर्थिक हैं । दान-पत्रों में गोविंदचंद्र के पुत्र का नाम विजयचंद्र लिखा है । अतएव यह पद्य विजयचंद्र के लिये श्रीहर्षे ने कहा होगा। संभव है, यह 'विजय-प्रशस्ति' का हो । क्योंकि श्रीहर्ष ने इस नाम का एक ग्रंथ बनाया है । नैषध- चरित के पाँचवें सर्ग के अंत में श्रीहर्ष ने कहा है—

तस्य श्रीविजयप्रशस्तिरचना तावस्य नव्ये महा-
काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गोऽगमत्पञ्चमः ।

जयचंद्र के आश्रय में रहकर उसके पिता को प्रशस्ति लिखना श्रीहर्ष के लिये स्वाभाविक बात है। राजशेखर ने श्रीहर्ष के डेढ़-दो सौ वर्ष पीछे प्रबंधकोष लिखा है। अतः नामों में गड़बड़ होना संभव है। यह भी संभव है कि श्रीहर्ष विजयचंद्र के समय कान्यकुब्जेश्वर के दरबार में पहलेपहल गए हों, और उसके मरने पर जयचंद्र के आश्रय में रहे हों।

श्रीहर्ष के अपूर्व पांडित्य को देखकर उनके पिता का पराजय करनेवाले पंडित ने भी—देव ! वादींद्र ! भारतीसिद्ध ! इत्यादि संबोधन-पूर्वक—श्रीहर्ष के सम्मुख यह स्वीकार किया कि उनके बराबर दूसरा विद्वान् नहीं।

कुछ काल के अनंतर जयचंद्र ने श्रीहर्ष से कहा कि तुम कोई प्रबध लिखो। इस पर श्रीहर्ष ने नैषध-चरित की रचना