करके स्वयं विलाप करने लगे। इस पर दमयंती ने नल को पहचाना । देवतों को भी इसकी यथार्थता विदित हो गई। परंतु अप्रसन्न होना तो दूर रहा, राजा की दृढ़ता और स्थिरप्रतिज्ञता को देखकर वे चारो दिकपाल उलटा उस पर बहुत संतुष्ट हुए । यहाँ तक को कथा नैषध चरित के नौ सों में वणन की गई है।
दशम से प्रारंभ करके चतुर्दश सर्ग तक दमयंती के स्वयंवर का वर्णन है । दमयंती के पिता राजा भीम की प्रार्थना पर उसके कुल-देवता विष्णु ने सरस्वती को राजों का वंश, यश इत्यादि वर्णन करने के लिये भेजा। सरस्वती ने अद्भुत वर्णन किया । जितने देवता, जितने लोकपाल, जितने द्वीपाधिपति और जितने राजे स्वयंवर में आए थे, सरस्वती ने उन सबकी पृथक्-पृथक् नामादि निर्देश-पूर्वक प्रशंसा की। इस स्वयंवर में उन चार—इंद्र, वरुण, यम और अग्नि—देवतों ने दमयंती को छलने के लिये एक माया रची। उन्होंने नल ही का रूप धारण किया और जहाँ नल बैठे थे, वहीं जाकर वे भी बैठ गए । अतएव एक स्थान पर एक ही रूपवाले पाँच नल हो गए । इन पाँच नलों की कथा जिस सर्ग (तेरहवें) में है, उसको पंडित लोग पंचनली कहते हैं। श्रीहर्ष ने इस पंचनली का वर्णन सरस्वती के मुख से बड़ा ही अद्भुत कराया है। उन्होंने अपूर्व श्लेषचातुरी इस वर्णन में व्यक्त की है । प्रायः पूरा सर्ग-का-सर्ग श्लेषमय है। प्रति श्लोक से एक-एक