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मित्रसम्प्राप्ति]
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लगा। उसकी आवाज़ सुनकर हिरण्यक ने सोचा, यह कौन-सा कबूतर है? क्या इसके बन्धन कटने शेष रह गये हैं?

हिरण्यक ने पूछा—"तुम कौन हो?"

लघुपतनक—"मैं लघुपतनक नाम का कौवा हूँ।"

हिरण्यक—"मैं तुम्हें नहीं जानता, तुम अपने घर चले जाओ।"

लघुपतनक—"मुझे तुम से बहुत ज़रूरी काम है; एक बार दर्शन तो दे दो।"

हिरण्यक—"मुझे तुम्हें दर्शन देने का कोई प्रयोजन दिखाई नहीं देता।"

लघुपतनक—"चित्रग्रीव के बन्धन काटते देखकर मुझे तुमसे बहुत प्रेम हो गया है। कभी मैं भी बन्धन में पड़ जाऊँगा तो तुम्हारी सेवा में आना पड़ेगा।"

हिरण्यक—"तुम भोक्ता हो, मैं तुम्हारा भोजन हूँ; हम में प्रेम कैसा? जाओ, दो प्रकृति से विरोधी जीवों में मैत्री नहीं हो सकती।"

लघुपतनक—"हिरण्यक! मैं तुम्हारे द्वार पर मित्रता की भीख लेकर आया हूँ। तुम मैत्री नहीं करोगे तो यहीं प्राण दे दूंगा।"

हिरण्यक—"हम सहज-वैरी हैं, हममें मैत्री नहीं हो सकती।"

लघुपतनक—"मैंने तो कभी तुम्हारे दर्शन भी नहीं किए। हम में वैर कैसा?"