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[पञ्चतन्त्र
 


हिरणयक—"वैर दो तरह का होता है:सहज और कृत्रिम। तुम मेरे सहज-वैरी हो।"

लघुपतनक—"मैं दो तरह के वैरों का लक्षण सुनना चाहता हूँ।"

हिरणयक—"जो वैर कारण से हो वह कृत्रिम होता है, कारणों से ही उस वैर का अन्त भी हो सकता है। स्वाभाविक वैर निष्कारण होता है, उसका अन्त हो ही नहीं सकता।"

लघुपतनक ने बहुत अनुरोध किया, किन्तु हिरणयक ने मैत्री के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। तब लघुपतनक ने कहा—"यदि तुम्हें मुझ पर विश्वास न हो तो तुम अपने बिल में छिपे रहो; मैं बिल के बाहर बैठा-बैठा ही तुम से बातें कर लिया करूँगा।"

हिरण्यक ने लघुपतनक की यह बात मान ली। किन्तु, लघुपतनक को सावधान करते हुए कहा—"कभी मेरे बिल में प्रवेश करने की चेष्टा मत करना।" कौवा इस बात को मान गया। उसने शपथ ली कि कभी वह ऐसा नहीं करेगा।

तब से वे दोनों मित्र बन गये। नित्यप्रति परस्पर बातचीत करते थे। दोनों के दिन बड़े सुख से कटते थे। कौवा कभी-कभी इधर-उधर से अन्न संग्रह करके चूहे को भेंट में भी देता था। मित्रता में यह आदान-प्रदान स्वाभाविक था। धीरे-धीरे दोनों की मैत्री घनिष्ट होती गई। दोनों एक क्षण भी एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते थे।