बहुत दिन बाद एक दिन आँखों में आँसू भर कर लघुपतनक ने हिरणयक से कहा—"मित्र! अब मुझे इस देश से विरक्ति हो गई है, इसलिये दूसरे देश में चला जाऊँगा।"
कारण पूछने पर उसने कहा—"इस देश में अनावृष्टि के कारण दुर्भिक्ष पड़ गया है। लोग स्वयं भूखे मर रहे हैं, एक दाना भी नहीं रहा। घर-घर में पक्षियों के पकड़ने के लिए जाल बिछ गए हैं। मैं तो भाग्य से ही बच गया। ऐसे देश में रहना ठीक नहीं है।"
हिरण्यक—"कहाँ जाओगे?"
लघुपतनक—"दक्षिण दिशा की ओर एक तालाब है। वहाँ मन्थरक नाम का एक कछुआ रहता है। वह भी मेरा वैसा ही घनिष्ठ मित्र है जैसे तुम हो। उसकी सहायता से मुझे पेट भरने योग्य अन्न-मांस आदि अवश्य मिल जाएगा।"
हिरण्यक—"यही बात है तो मैं भी तुम्हारे साथ जाऊँगा। मुझे भी यहाँ बड़ा दुःख है।"
लघुपतनक—"तुम्हें किस बात का दुःख है?"
हिरणयक—"यह मैं वहीं पहुँचकर तुम्हें बताऊँगा।"
लघुपतनक—"किन्तु, मैं तो आकाश में उड़ने वाला हूँ। मेरे साथ तुम कैसे जाओगे?"
हिरण्यक—"मुझे अपने पंखों पर बिठा कर वहाँ ले चलो।"
लघुपतनक यह बात सुनकर प्रसन्न हुआ। उसने कहा कि वह संपात, आदि आठों प्रकार की उड़ने की गतियों से परिचित है।