पृष्ठ:पंचतन्त्र.pdf/११३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१०८] [पञ्चतन्त्र


ताम्रचूड़ ब्राह्मण ने इस चोरी का एक उपाय किया। वह कहीं से बांस का डंडा ले आया और उससे रात भर खूंटी पर टंगे पात्र को खटखटाता रहता। मैं भी बांस से पिटने के डर से पात्र में नहीं जाता था। सारी रात यही संघर्ष चलता रहता।

कुछ दिन बाद उस मन्दिर में बृहत्स्फिक नाम का एक संन्यासी अतिथि बनकर आया। ताम्रचूड़ ने उसका बहुत सत्कार किया। रात के समय दोनों में देर तक धर्म-चर्चा भी होती रही। किन्तु ताम्रचूड़ ने उस चर्चा के बीच भी फटे बांस से भिक्षापात्र को खटकाने का कार्यक्रम चालू रखा। आगन्तुक संन्यासी को यह बात बहुत बुरी लगी। उसने समझा कि ताम्रचूड़ उसकी बात को पूरे ध्यान से नहीं सुन रहा। इसे उसने अपना अपमान भी समझा। इसीलिये अत्यन्त क्रोधाविष्ट होकर उसने कहा—"ताम्रचूड़! तू मेरे साथ मैत्री नहीं निभा रहा। मुझ से पूरे मन से बात भी नहीं करता। मैं भी इसी समय तेरा मन्दिर छोड़कर दूसरी जगह चला जाता हूँ।"

ताम्रचूड़ ने डरते हुए उत्तर दिया—"मित्र, तू मेरा अनन्य मित्र है। मेरी व्यप्रता का कारण दूसरा है; वह यह कि यह दुष्ट चूहा खूंटी पर टंगे भिक्षापात्र में से भी भोज्य वस्तुओं को चुराकर खा जाता है। चूहे को डराने के लिये ही मैं भिक्षापात्र को खटका रहा हूँ। इस चूहे ने तो उछलने में बिल्ली और बन्दर को भी मात कर दिया है।"

बृहत्स्फिक—"उस चूहे का बिल तुझे मालूम है?"