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मित्रसम्प्राप्ति]
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गर्मी से मैं बन्दर और बिल्ली से भी अधिक उछल सकता था। ख़ज़ाना लेकर दोनों ब्राह्मण मन्दिर को लौट गए। मैं जब अपने दुर्ग में गया तो उसे उजड़ा देखकर मेरा दिल बैठ गया। उसकी वह अवस्था देखी नहीं जाती थी। सोचने लगा, क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मेरे मन को कहाँ शान्ति मिलेगी?

बहुत सोचने के बाद मैं फिर निराशा में डूबा हुआ उसी मन्दिर में चला गया जहां ताम्रचूड़ रहता था। मेरे पैरों की आहट सुनकर ताम्रचूड़ ने फिर खूंटी पर टंगे भिक्षापात्र को फटे बाँस से पीटना शुरू कर दिया। बृहत्स्फिक ने उससे पूछा—

"मित्र! अब भी तू निःशंक होकर नहीं सोता। क्या बात है?"

ताम्रचूड़—"भगवन्! वह चूहा फिर यहाँ आ गया है। मुझे डर है, मेरे भिक्षा-शेष को वह फिर न कहीं खा जाय।"

बृहत्स्फिक—"मित्र! अब डरने की कोई बात नहीं। धन के ख़ज़ाने के साथ उसके उछलने का उत्साह भी नष्ट होगया। सभी जीवों के साथ ऐसा होता है। धन-बल से ही मनुष्य उत्साही होता है, वीर होता है और दूसरों को पराजित करता है।"

यह सुनकर मैंने पूरे बल से छलाँग मारी, किन्तु खूंटी पर टंगे पात्र तक न पहुँच सका, और मुख के बल ज़मीन पर गिर पड़ा। मेरे गिरने की आवाज़ सुनकर मेरा शत्रु बृहत्स्फिक ताम्रचूड़ से हँसकर बोला—

"देख, ताम्रचूड़! इस चूहे को देख। ख़ज़ाना छिन जाने के