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मित्रसम्प्राप्ति] [११९

स्वदेश में ही हो जाती है। न होनी हो तो हथेली में आया धन भी नष्ट हो जाता है। अतः यहीं रहकर व्यवसाय करते रहो, भाग्य में लिखा होगा तो यहीं धन की वर्षा हो जायगी।"

सोमिलक—"भाग्य-अभाग्य की बातें तो कायर लोग करते हैं। लक्ष्मी उद्योगी और पुरुषार्थी शेर-नर को ही प्राप्त होती है। शेर को भी अपने भोजन के लिये उद्यम करना पड़ता है। मैं भी उद्यम करूँगा; विदेश जाकर धन-संचय का यत्न करूँगा।"

यह कहकर सोमिलक वर्धमानपुर चला गया। वहाँ तीन वर्षों में अपने कौशल से ३०० सोने की मुहरें लेकर वह घर की ओर चल दिया। रास्ता लम्बा था। आधे रास्ते में ही दिन ढल गया, शाम हो गई। आस-पास कोई घर नहीं था। एक मोटे वृक्ष की शाखा के ऊपर चढ़कर रात बिताई। सोते सोते स्वप्न आया कि दो भयंकर आकृति के पुरुष आपस में बात कर रहे हैं। एक ने कहा—"हे पौरुष! तुझे क्या मालूम नहीं है कि सोमिलक के पास भोजन-वस्त्र से अधिक धन नहीं रह सकता; तब तूने इसे ३०० मुहरें क्यों दी?" दूसरा बोला—"हे भाग्य! मैं तो प्रत्येक पुरुषार्थी को एक बार उसका फल दूंगा ही। उसे उसके पास रहने देना या नहीं रहने देना तेरे अधीन है।"

स्वप्न के बाद सोमिलक की नींद खुली तो देखा कि मुहरों का पात्र खाली था। इतने कष्टों से संचित धन के इस तरह लुप्त हो जाने से सोमिलक बड़ा दुःखी हुआ, और सोचने लगा—'अपनी पत्नी को कौनसा मुख दिखाऊँगा, मित्र क्या कहेंगे?' यह सोचकर