पृष्ठ:पंचतन्त्र.pdf/१२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१२०] [पश्चतन्त्र

वह फिर वर्धमानपुर को ही वापिस आ गया। वहाँ दित-रात घोर परिश्रम करके उसने वर्ष भर में ही ५०० मुहरें जमा करलीं। उन्हें लेकर वह घर की ओर जा रहा था कि फिर आधे रास्ते में रात पड़ गई। इस बार वह सोने के लिये ठहरा नहीं; चलता ही गया। किन्तु चलते-चलते ही उसने फिर उन दोनों—पौरुष और भाग्य—को पहले की तरह बात-चीत करते सुना। भाग्य ने फिर वही बात कही कि—"हे पौरुष! क्या तुझे मालूम नहीं कि सोमिलक के पास भोजन-वस्त्र से अधिक धन नहीं रह सकता। तब, उसे तूने ५०० मुहरें क्यों दी?" पौरुष ने वही उत्तर दिया—"हे भाग्य! मैं तो प्रत्येक व्यवसायी को एक बार उसका फल दूंगा ही, इससे आगे तेरे अधीन है कि उसके पास रहने दे या छीन ले।" इस बात-चीत के बाद सोमिलक ने जब अपनी मुहरों वाली गठरी देखी तो वह मुहरों से खाली थी।

इस तरह दो बार खाली हाथ होकर सोमिलक का मन बहुत दुःखी हुआ| उसने सोचा—"इस धन-हीन जीवन से तो मृत्यु ही अच्छी है। आज इस वृक्ष की टहनी से रस्सी बाँधकर उस पर लटक जाता हूँ और यहीं प्राण दे देता हूँ।"

गले में फन्दा लगा, उसे टहनी से बाँध कर जब वह लटकने ही वाला था कि उसे आकाश-वाणी हुई—"सोमिलक! ऐसा दुःसाहस मत कर। मैंने ही तेरा धन चुराया है। तेरे भाग्य में भोजन-वत्र मात्र से अधिक धन का उपभोग नहीं लिखा। व्यर्थ के धन-संचय में अपनी शक्तियाँ नष्ट मत कर। घर जाकर सुख से रह।