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मित्रसम्प्राप्ति] [१२३


गीदड़ ने उत्तर दिया—"प्रिये! न जाने यह लोथ गिरे या न गिरे। कब तक इसका पीछा करूँगा? इस व्यर्थ के काम में मुझे मत लगाओ। हम यहाँ चैन से बैठे हैं। जो चूहे इस रास्ते से जायेंगे उन्हें मारकर ही हम भोजन कर लेंगे। तुझे यहाँ अकेली छोड़कर जाऊँगा तो शायद कोई दूसरा गीदड़ ही इस घर को अपना बना ले। अनिश्चित लाभ की आशा में निश्चित वस्तु का परित्याग कभी अच्छा नहीं होता।"

गीदड़ी बोली—"मैं नहीं जानती थी कि तू इतना कायर और आलसी है। तुझ में इतना भी उत्साह नहीं है। जो थोड़े से धन से सन्तुष्ट हो जाता है वह थोड़े से धन को भी गंवा बैठता है। इसके अतिरिक्त अब मैं चूहे के मांस से ऊव गई हूँ। बैल के ये मांसपिण्ड अब गिरने ही वाले दिखाई देते हैं। इसलिए अब इसका पीछा करना ही चाहिए।"

गीदड़ी के आग्रह पर गीदड़ को बैल के पीछे जाना पड़ा। सच तो यह है कि पुरुष तभी तक प्रभु होता है जब तक उस पर स्त्री का अंकुश नहीं पड़ता। स्त्री का हठ पुरुष से सब कुछ करा देता है।

तब से गीदड़-गीदड़ी दोनों बैल के पीछे-पीछे घूमने लगे। उनकी आँखें उसके लटकते मांस-पिण्ड पर लगी थीं, लेकिन वह मांस-पिण्ड 'अब गिरा', 'तब गिरा' लगते हुए भी गिरता नहीं था। अन्त में १०-१५ वर्ष इसी तरह बैल का पीछा करने के बाद एक दिन गीदड़ ने कहा—"प्रिये! न मालूम यह गिरे भी या नहीं