पृष्ठ:पंचतन्त्र.pdf/१२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१२४] [पञ्चतन्त्र

गिरे, इसलिए अब इसकी आशा छोड़कर अपनी राह लो।"

कहानी सुनने के बाद पौरुष ने कहा—'यदि यही बात है, धन की इच्छा इतनी ही प्रबल है तो तू फिर वर्धमानपुर चला जा। वहां दो बनियों के पुत्र हैं; एक गुप्तवन, दूसरा उपभुक्त धन। इन दोनों प्रकार के धनों का स्वरूप जानकर तू किसी एक का वरदान मांगना। यदि तू उपभोग की योग्यता के बिना धन चाहेगा तो तुझे गुप्त धन दे दूँगा और यदि खर्च के लिये धन चाहेगा तो उपभुक्त धन दे दूँगा।"

यह कहकर वह देवता लुप्त हो गया। सोमिलक उसके आदेशानुसार फिर वर्धमानपुर पहुँचा। शाम हो गई थी। पूछता-पूछता वह गुप्तधन के घर पर चला गया। घर पर उसका किसी ने सत्कार नहीं किया। इसके विपरीत उसे भला-बुरा कहकर गुप्तधन और उसकी पत्नी ने घर से बाहिर धकेलना चाहा। किन्तु, सोमिलक भी अपने संकल्प का पक्का था। सब के विरुद्ध होते हुए भी वह घर में घुसकर जा बैठा। भोजन के समय उसे गुप्तधन ने रूखी-सूखी रोटी दे दी। उसे खाकर वह वहीं सो गया। स्वप्न में उसने फिर वही दोनों देव देखे। वे बातें कर रहे थे। एक कह रहा था—"हे पौरुष! तूने गुप्तधन को भोग्य से इतना अधिक धन क्यों दे दिया कि उसने सोमिलक को भी रोटी देदी।" पौरुष ने उत्तर दिया—"मेरा इसमें दोष नहीं। मुझे पुरुष के हाथों धर्म-पालन करवाना ही है, उसका फल देना तेरे अधीन है।"